बीजीय मेथी फसल की वैज्ञानिक विधि से खेती

मेथी (ट्राइगोनेला फोइनम-ग्रेइकम एल.), फेबेसी कुल के अन्तर्गत आने वाली एक वर्षीय बहुपयोगी बीजीय मसालो की एक प्रमुख फसल है। भारत में मुख्य रुप से मेथी की खेती राजस्थान , मध्यप्रदेश तथा गुजरात में की जाती है। देश की मेथी का 80 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल व उत्पादन अकेले राजस्थान राज्य में है, अतः इसे मेथी का कटोरा कहा जाता है|

राजस्थान में मेथी उत्पादन मुख्यत: नागौर, उदयपुर, कोटा, बून्दी, झालावाड. आदि जिलो में होता है। मेथी का उपयोग सब्जियों व खाद्य पदार्थो में किया जाता है तथा इसका औषधीय महत्व भी है। इसकी हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी तथा खनिज लवण आदि पाये जाते हैं।

fenugreekइसका उपयोग भोज्य पदार्थ को सरस एवं सुगंधित बनाने में किया जाता हैं। मसालों के अतिरिक्त इसका उपयोग दवाओं में भी होता हैं।

इसके बीजों में मूत्रवर्धक, शक्तिवर्धक, वायुनाशक, पोषक व कामोद्दीपक शक्ति पायी जाती है। एक फलीदार फसल होने के कारण मृदा में पाये जाने वाले राइजोबियम जीवाणु इसके पौधों की जड़ ग्रन्थियों में वातावरण की नत्रजन को स्थिर कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते है।

इसके दानों में ‘डायोस्जेनिन‘ नामक स्टेरोइड़ पाया जाता है, जो सेक्स हार्मोन व गर्भ निरोधक दवाओं में प्रयुक्त होता है। अतः इस पदार्थ के कारण मेथी का महत्व कई गुना बढ़ रहा है।

मेथी की खेती की वैज्ञानिक विधि निम्न प्रकार है:-

किसी भी फसल की खेती करने से पहले, सर्वप्रथम क्षेत्र के अनुसार प्रमाणित स्रोत से सही बीज का चुनाव करना सफल खेती के लिए महत्वपूर्ण है|

इस पहलू को ध्यान में रखते हुए मेथी की कुछ महत्वपूर्ण किस्मों का विवरण इस प्रकार है-

मेथी की विभिन्न उन्नत किस्में:

किसी भी फसल से अच्छा उत्पादन लेने हेतु अच्छी किस्मों का चुनाव कर खेती करना एक बेहतर विकल्प है।

कुछ किस्में किसी स्थान विशेष के लिये अनुकूल होती है जबकि कुछ किस्में देश के सभी भागो के लिये अनुकूलित होती है। अत: अच्छी किस्मों का चयन करके उपज ज्यादा व लागत कम कर सकते है।

सी ओ 1: द्विप्रयोजनीय (दाने व पत्तियाँ) किस्म है| यह अगेती किस्म है जो 80-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है| यह जड. गलन रोग सहनशील है और इसके बीज में 21.7% प्रोटीन पाई जाती है| यह 680 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

सी ओ 2: द्विप्रयोजनीय (दाने व पत्तियाँ) व कम अवधि मे पकने वाली किस्म (85-90 दिन) है| यह राजोक्टोनिया जड. गलन रोग सहनशील है| यह खरीफ व रबी दोनो मौसम मे लगाने हेतु उपयुक्त तथा 480 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

आर एम टी 1: इस किस्म के दानें मध्यम आकार के, आकर्षक व पीले रंग के होते है। यह जड. गाँठ सूत्रकृमि रोग, छाछ्या रोग व चेंपा के प्रति मध्यम सहनशील तथा 1400 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

राजेंद्र क्रांति: इसका पौधा झाडि.नुमा मध्यम आकार का होता है| यह अगेती किस्म है तथा खरीफ व रबी दोनो मौसम में अंतरसस्यन हेतु उपयुक्त है| यह सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा, छाछ्या रोग तथा चेंपा के प्रति सहनशील और 1300 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

लाम सलेक्शन 1: दोहरे प्रयोजन हेतु, झाडि.नुमा पौधा, अगेती किस्म है| यह मुख्य कीटो व रोगो के लिये प्रतिरोधक तथा 740 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

आर एम टी 303: यह मध्यम अवधि में पकने वाली (145-150 दिन), बडे. आकार के , आकर्षक व पीले रंग के दाने व;ई किस्म है| यह छाछ्या रोग के प्रति कम संवेदंशील तथा 1900 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

आर एम टी 305: यह बडे. आकार के , आकर्षक व पीले रंग के दाने वाली, छाछ्या रोग व जड. गाँठ सूत्रकृमि के प्रति प्रतिरोधी किस्म है| यह कम अवधि में पकने वाली (120-125 दिन) और 1300 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

अजमेर फेनुग्रीक 1: इसके पौधे मध्यम ऊँचाई के होते है| यह 137 दिनों में पक जाती है और इससे 2000-2200 किलो प्रति हैक्टर उपज ली जा सकती है|

अजमेर फेनुग्रीक 2: इसके पौधे मध्यम ऊँचाई के तथा बीज छोटे आकार के होते है| यह 138 दिनों में पक जाती है और इससे 1500-1800 किलो प्रति हैक्टर उपज ली जा सकती है| इसकी पत्तिया बड़ी आकार की होने से इसे पत्तीदार सब्जी के रूप में भी काम में ले सकते है| इसका औषधीय महत्त्व अधिक है| यह किस्म पुरे भारत में सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अनुमोदित है|

अजमेर फेनुग्रीक 3: यह अच्छी गुणवता तथा अधिक उपज देने वाली तथा देश के सभी भागो के लिये उपयुक्त किस्म है।

अजमेर फेनुग्रीक 4: यह राजस्थान के लिये अनुकूलित तथा 1925 किलो प्रति हैक्टर उपज देने वाली किस्म है।

अन्य किस्में: आर एम टी 143, हिसार सोनाली, हिसार सुवर्णा, हिसार माधवी, राजेंद्र आभा, पुसा अर्ली बंचिग, ए एम-01-35, यू एम 144, प्रताप राजस्थान मेथी (पी आर एम 45) आदि।

मृदा व खेत की तैयारी:

मेथी की खेती के लिए अच्छे जल निकास व पर्याप्त जैविक पदार्थो वाली दुमट मटियार से दुमट बलुई मिट्टी उपयुक्त रहती है। मृदा का पी.एच. मान 6-7 फसल की वृद्धि व विकास के लिए उपयुक्त रहता है।

खेत की तैयारी हेतु भारी मृदा में देशी हल से 3-4 व हल्की मृदा में 2-3 जुताई पर्याप्त है। जुताई के तुरन्त बाद पाटा लगा देना चाहिए। दीमक एवं भूमिगत कीटों की समस्या होने पर इनकी रोकथाम के लिये अन्तिम जुताई के समय एण्डोसल्फोन (4 प्रतिशत) या मिथाइल पेराथियान 25 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से भूमि में मिला देना चाहिए।

बुवाई एवं बीज दर:

मेथी की बुवाई के लिए उपयुक्त समय अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक का रहता है। साधारण मेथी की बुवाई के लिये 20-25 किग्रा प्रति हैक्टर बीज की आवश्यकता होती है।

बुवाई से पूर्व बीजो को 2 ग्राम कार्बण्डाजिम या 4-6 ग्राम ट्राईकोडर्मा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

बुवाई के समय कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी क्रमश: 30 सेमी व 10 सेमी एवं बीजों की गहराई 5 सेमी से अधिक नहीं रखनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक:

खेत की तैयारी के समय बुवाई से लगभग एक महीने पहले अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद 10-15 टन प्रति हैक्टर की दर से डालें। उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। सामान्यतया 40 किग्रा नत्रजन एवं 40 किग्रा फास्फोरस प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के पूर्व खेत में मिला देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण:

इस फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिये एवं मृदा में उचित वायु संचार बनाए रखने के लिये दो निराई-गुडाई करनी चाहिए है। पहली निराई-गुडाई बुवाई के 30 दिन बाद व दूसरी बुवाई के 50-55 दिन बाद करनी चाहिए। रसायनों द्वारा खरपतवार नियंत्रण हेतु फ्ल्यूक्लोरेलिन 0 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर की दर से 750 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के पहले खेत में मिला देना चाहिए।

सिंचाई:

सिंचाई की संख्या मृदा की संरचना व जलवायु पर निर्भर करती है। अच्छी जलधारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाई पर्याप्त है। फसल में फलियों व बीजों के विकास (क्रांतिक अवस्था) के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए|

पौध संरक्षण:

इस फसल में विभिन्न कीटों एवं व्याधियाँ जैसे मोयला व बरूथी कीटों एवं छाछ्या, तुलासिता, जड़ गलन एवं पत्ती धब्बा बीमारियों का प्रकोप रहता हैं जिनका सही समय पर निवारण आवश्यक हैं, अन्यथा फसल की उपज एवं गुणवता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हैं।

पुष्प आने के समय एवं बीज बनते समय फसल पर पाला पड़ने की सम्भावना अधिक होती है। फसल को पाले से बचाने के लिए 1 प्रतिशत सांद्र गन्धक अम्ल का छिड़काव करना चाहिये। इसके विकल्प में हल्की सिंचाई करें या पाला पडने की आशंका के दिन आधी रात बाद (2-4 बजें) खेत में धुंआ करे।

कटाई व भंडारण:

सामान्यतया मेथी की फसल 140-150 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। जब पौधों की पतियां झड़ने लगे व पौधे पीले पड़ने लगे तब पौधो को काटकर खेत मे छोटी-छोटी ढेरियों में रखना चाहिए।

कटाई सही समय पर करनी चाहिए अन्यथा दानें खेत मे छिटक कर गिर जाते है। पौधे व फलियां सूखने के बाद दाने निकलकर अलग कर लेना चाहिए। साफ दानों को 9 -10 प्रतिशत नमी तक सुखाकर भण्डारण के लिए बोरियों मे भरकर हवादार नमी रहित गोदामों में रखना चाहिए।

इस तरह किसान भाई उन्नत कृषि प्रक्रियाओं के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक तरीके से खेती करे तो कम खर्च में भी मेथी की अच्छी उपज प्राप्त कर सकते है।


Authors:

राजवन्ती सारण * और दलीप1

*पादप प्रजनन एवं आनुवंशिकी विभाग, राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान,

श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, दुर्गापुरा, जयपुर-302 018 (राजस्थान)

1एस. के. एन. महाविद्यालय, जोबनेर

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