रासायनिक उर्वरको के उपयोग से उत्पन्न ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का अल्पीकरण

भारत में बढ़ती आबादी के लिए उर्वरक का बढ़ता उपयोग दोगुना कृषि उत्पादन के लिए अपरिहार्य हो गया है। हालांकिए कृषि में उर्वरक की बढ़ती खपत भी पर्यावरण प्रदूषण के लिए चिंता का कारण है। पर्यावरण पर उर्वरक उपयोग के विभिन्न प्रभाव ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन, भूजल में नाइट्रेट प्रदूषणए कृषि भूमि में भारी धातु का निर्माण और यूट्रोफिकेशन हैं। विभिन्न पर्यावरणीय प्रभावों के बीच, उर्वरक उपयोग से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वैश्विक और भारतीय जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण ड्राइवरों में से एक है।

वायुमण्डलीय ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती हुई सघनता के कारण जलवायु परिवर्तन होना निष्चित है। मानवजनित ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन का लगभग 24 प्रतिषत हिस्सा कृषि क्षेत्र का है तथा बढ़ती हुई वैष्विक जनसंख्या के भोजन की आपूर्ति हेतु भविष्य में कृषि उत्पादन की मात्रा अधिक रहेगी। कार्बन डाइ ऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), तथा नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) का मिश्रित रूप ग्रीन हाउस गैसें कहलाती है, जो पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान के लिए उत्तरदायी है। वैष्विक स्तर पर खेती में प्रयुक्त मिट्टी से लगभग 60 प्रतिषत N2O तथा लगभग 50 प्रतिषत CH4 का उत्सर्जन होता है।

राष्ट्रीय स्तर पर भारत में इस उर्वरक से युक्त खेती की मिट्टी से लगभग 23 प्रतिषत कुल उत्सर्जन होता है जो कुल सीधे N2O उत्सर्जनों का सर्वाधिक स्त्रोत अर्थात् लगभग 77 प्रतिषत है। उर्वरक उघोग द्वारा जलवायु अनुकूल खेती को प्राथमिकता पर रखा गया है। उत्सर्जन की तीव्रता या सघनता को कम किए बिना उत्पादकता में वृद्वि को लम्बे समय तक स्थायी नहीं बनाया जा सकता है।

ग्रीन हाउस गैसों को कम रखते हुए उर्वरक के उपयोग को बढ़ाने के लिए इनके उपयुक्त उपयोग संबंधी दिषानिर्देष अपनाए जाने की आवष्यकता है ताकि भोजन की आवष्यकताओं संबंधी लक्ष्यों को भी प्राप्त किया जा सके। अतः ऐसी प्रौघोगिकियों एवं प्रक्रियाओं पर विचार करना महत्वपूर्ण है जिन्हें न केवल अपनाया जा सके बल्कि उनसे गैसों के उत्सर्जन में भी कमी लाई जा सके।

पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए ऐसी प्रबंधन प्रक्रियाओं की पहचान कर अपनाए जाने की आवष्यकता है जो उर्वरक का उपयोग अच्छी तरह से कर सकें। अतः इस लेख का उद्देष्य उन प्राकृतिक एवं प्रबंधन तत्वों के प्रभावों पर विचार विमर्ष करना है जो जैवरासायनिक तथा भौतिक प्रक्रियाओ को प्रभावित करते है तथा जिसे उर्वरक प्रयोगों के कारण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन प्रभावित होता है।

भारतीय खेती में उर्वरकों का उपयोग तथा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जनः

ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्त्रोत ऊर्जा उत्पादन (मुख्यतः जीवाष्म ईंधन के प्रज्जवलन से ब्व्2) तथा खेती, वानिकी भूमि उपयोग (मुख्यतः CH4 तथा N2O का उत्सर्जन है। खेती, वानिकी तथा भूमि उपयेग का कुल उत्सर्जन में योगदान 31 प्रतिषत (2004) से घटकर 24 प्रतिषत (2010)  हो गया ग्रीन हाउस गैसों के क्षेत्रों की पहचान व खेती के क्षेत्र में इन्हें सीमित किये जाने की प्रक्रिया में अनेक संषोधन किए जा चुके हैं। कृषि में गैर CO2 स्त्रोतों (CH4 तथा N2O) को मानवजनित ग्र्रीन हाउस उत्सर्जन बताया गया है।

उत्सर्जित CO2 निष्क्रिय मानी जाती है जो प्रकाष संष्लेषण के माध्यम से कार्बन स्थिरीकरण एवं ऑक्सीकरण के वार्षिक चक्रों से संबंध होती है। कृषि उत्पादन में कृषि मृदा प्रबंधन के लिए उर्वरक एवं खाद का प्रयोग अभिन्न भाग है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की जनसंख्या लगभग 1.7 बिलियन तक पहुचने का अनुमान है। जो कि चीन व अमरीका की कुल जनसंख्या के लगभग बराबर होगी। इस बढ़ती हुई जनसंख्या के भोजन की आपूर्ति के लिए खाद्यान्न उत्पादन 333 मिलियन टन मिट्टी के लगभग होना चाहिए।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका है। लगभग 58 प्रतिषत से भी अधिक ग्रामीण परिवार आजीविका के लिए मुख्यतः खेती पर निर्भर है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मत्स्यपालन एवं वानिकी के साथ साथ खेती का सबसे अधिक योगदान है। वर्ष 2015-16 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी 17.5% थी और रोजगार में 50%, जो दर्शाता है कि रोजगार के लिए महत्वपूर्ण रहते हुए कृषि अर्थव्यवस्था के लिए कम महत्वपूर्ण होती जा रही है।

खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की दिशा में उर्वरक का योगदान 50% है। वर्ष 1950 से देश में खाद्यान्न उत्पादन एवं उर्वरक के उपयोग की कुल मात्राएं चित्र 1 में प्रस्तुत है। भारत में वर्ष 1950-51 में 50.8 मीट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन था जो 2016-17 में बढ़कर 275.7 मीट्रिक टन हो गया। साथ ही रासायनिक उर्वरक की खपत 0.1 मिलियन  मीट्रिक टन से बढ़कर 26.0 मिलियन मीट्रिक टन हो गई।

उर्वरक की खपत में चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर  वर्ष 2000 के बाद कम हो गई है। जबकि यह 1960-61 और 2000-01 के बीच 10.63% की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ी है, यह 2000 और 2016-17 के बीच 2.63% की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ी है। इसी अवधि में खाद्य अनाज उत्पादन में भी 2.21% से 2.00% की वृद्धि दर में मामूली कमी दर्ज की गई। अतः उर्वरक की खपत खाद्यान्न उत्पादन को उल्लेखनीय रूप से प्रभावित करती है तथा दोनों एक दूसरे से अनुपूरक है।

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ऐ ओ स्टेट 2018) के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन (प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष उत्सर्जन) वर्ष 2015 में कृत्रिम उर्वरक से 112 CO2 समतुल्य मिलियन मीट्रिक टन है। जबकि उर्वरक की कुल खपत (N+P2O5+K2O) (फर्टिलाइजर स्टैटिस्टिक  2016-17) के अनुसार 25.58 मिलियन मीट्रिक टन था जिसके परिणामस्वरूप 4.38 का उत्सर्जन कारक हुआ। अतः कृषि में उवर्रक के प्रयोग में वृद्धि के साथ ही ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भी वृद्धि होती है।

भारत में वर्ष 2020 तक खाद्यान्न की अनुमानित मांग 310.8 मिलियन टन होगी तथा रासायनिक उर्वरक की मांग 41.6 मिलियन मीट्रिक टन होगी। इससे ग्रीनहाउस गैसों का अनुमानित उत्सर्जन 184.79 CO2 समतुल्य मिलियन मीट्रिक टन होगा। रेखाचित्र-1 वर्ष 1950 से खाद्यान्न उत्पादन तथा रासायनिक उर्वरक की खपत के ऑंकड़े 2016-17 के भारतीय उर्वरक सांख्यिकी ऑंकड़ो के भारत में कुल मात्राओं के संदर्भ में।

Fertilizer use and food grain production

रेखाचित्र-1. भारत में वर्ष 1950-51 और 2016-17 में कुल उर्वरक की खपत और खाद्यान्न उत्पादन  (फर्टिलाइजर स्टैटिस्टिक 2016-17)

मिट्टी से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की प्रणाली

मिट्टी से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की जैव रासायनिक प्रक्रियाओं व प्रणालियों को समझना महत्वपूर्ण है, ताकि इन गैसों के निर्माण व समाप्त करने पर नियंत्रण करने वाले कारणों की पहचान की जा सके। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण मानवजनित ग्रीनहाउस गैस नाइट्रस ऑक्साइड मिट्टी में निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं के दौरान उत्पन्न होता है।

नाइट्रिफायर नाइट्रिफिकेषन-

अमोनियम से नाइट्रेट में परिवर्तन नाइट्रिफिकेषन कहलाता है। खाद या उर्वरक के साथ संशोधित मिट्टी में अमोनिया के जमाव के बाद ऑक्सीजन की उपस्थिति में सूक्ष्मजीवी की मध्यस्थता में यह मिट्टी से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की प्रणाली

मिट्टी से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की जैव रासायनिक प्रक्रियाओं व प्रणालियों को समझना महत्वपूर्ण है, ताकि इन गैसों के निर्माण व समाप्त करने पर नियंत्रण करने वाले कारणों की पहचान की जा सके। तीसरी प्रक्रिया मिट्टी में होता है। मिट्टी में अमोनिया के जमा होने के फलस्वरूप केमोडिनाइट्रिफिकेषन द्वारा अमोनिया के नाइट्राइट में ऑक्सीजेषन के दोरान हाइड्रॉक्साइलामाइन से N2O का निर्माण होता है।

डिनाइट्रीफिकेषन

खेत में खाद अथवा उर्वरक मिलाया जाने के बाद यह नाइट्रेट के पुनः वातावरण की नाइट्रोजन में परिवर्तन की जैविक मध्यस्थता वाली प्रक्रिया है। जिसमें मिट्टी अथवा खाद में ऑक्सीजन उपस्थित नहीं रहती है।

नाइट्रिफायर डिनाइट्रिफिकेषन

अमोनियम से नाइट्राइट में ऑक्सीडेषन के पश्चात् नाइट्राइट का छव्य छव् का नाइट्रस ऑक्साइड तथा नाइट्रोजन में विघटन हो जाता है। यह मुख्यतः ऑटोट्राफिक अमोनिया ऑक्सीडाइजर जीवाणु द्वारा किया जाता है।

मृदा में मिथेन मिथेनोजेनेसिस के द्वारा अवायवीय अवस्थाओं में निर्मित होती है तथा इसका उपयोग मिथेनोट्रापिक सूक्ष्मजीवियों द्वारा किया जाता है जो ऑक्सीजन तथा मिथेन का प्रयोग वायुवीय अवस्थाओं में संष्लेषण के लिए करते है। मिथेन फलक्स (अर्थात् मिथेन ऑक्सीडेषन तथा उत्पादन) में तीन समूहों के सूक्ष्मजीवी संलग्न हो सकते है। ये हैं मिथेनोट्रॉपिक बैक्टीरिया, अमोनिया ऑक्सीडाइजिंग बैक्टीरिया तथा मिथेनोजेनिक बैक्टीरिया।

मिथेनोजेनेसिस की आवृत्ति दर समूह के अन्य सदस्यों की गतिविधियों के कारण सीमित हो जाती है। विषेषकर ये हाइड्रोजन या एसिटेट की जल्दी जल्दी उपलब्धता पर निर्भर करती है। चूंकि मीथेन उत्पादन के लिए घटी हुई वायुवीय अवस्था अनिवार्य है अतः दलदलयुक्त क्षेत्र तथा धान के खेत की मृदा कृषि में मीथेन का प्रमुख स्त्रोत है।

पौधों की जड़ों, मृदा में सूक्ष्मजीवाणुओं के श्वसन से मृदा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का निर्माण होता है। यह अत्यंत कम मात्रा में  कार्बनयुक्त खनिजों के रासायनिक ऑक्सीडेषन से भी प्राप्त होती है। कार्बन डाइऑक्साइड का पर्यावरण संतुलन प्रकाष संष्लेषण तथा पर्यावरणीय श्वसन के बीच संतुलित होता है। अतः निम्नलिखित खण्डों में केवल गैर ग्रीन हाउस गैसें (N2O तथा CH4) के उत्सर्जन का ही उल्लेख किया गया है।

समाधानकारक रणनीतियां

नई प्रौद्योगिकी विकसित करने के प्रयास किए गए हैं जिनसे पोषण एवं ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन न्यूनतम हो जाता है। चूंकि ये उत्सर्जन प्राकृतिक प्रक्रियाओं का परिणाम है, अतः इन्हें नियंत्रित करना कठिन है। सर्वश्रेष्ठ विधि है नाइट्रोजन उपयोग की दक्षता में वृद्धि करना।

इसके अलावा उर्वरक निर्माण के दौरान उत्सर्जन को नई सफाई प्रोद्योगिकी द्वारा कम किया जा सकता है। जिससे नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में लगभग 70 से 90 प्रतिशत की कमी की जा सकती है।  खेत की मिट्टी से नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन कम करने का एकमात्र तरीका है निम्नलिखित प्रबन्धन कार्यविधियों के माध्यम से मृदा के गुणों एवं ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों के जलवायु नियंत्रण को प्रभावित करना।

जुताइ 

जुताई प्रक्रिया में मिट्टी तथा इसके पर्यावरण में भौतिक परिवर्तन किए जाने है। जिससे जैवरासायनिक प्रक्रियाओं में होने वाले बदलावों के फलस्वरूप नाइट्रस ऑक्साइड का उत्पादन एवं खपत उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हो सकते है। जुताई एक प्रमुख प्रक्रिया है जिसमें मिट्टी में ऑक्सीडेशन होता है। अतः मृदा कार्बन में कमी होती है किसी फसल की बुवाई के पूर्व जुताई की सघनुता से मृदा की संरचना, मृदा कणों में जल भराव, मृदा वायु में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का घनत्व प्रभावित होता है जिससे मिट्टी से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा सीधे प्रभावित होती है।

वैश्विक स्तर  पर शोधकर्ताओं द्वारा जुताई का जी.एच.जी. उत्सर्जन पर अलग प्रभाव देखा गया। यह संभवतः मिट्टी, जलवायु, फसल एवं प्रबन्धन प्रक्रियाओं में अंतर होने के कारण था। संरक्षणपूर्ण जुताई की प्रक्रियाओंए जैसे न्यूनतम जुताई, बिना जुताई  तथा कम जुताई से, कार्बन डाइऑक्साइड के कम उत्सर्जन तथा मीथेन उपयोग में वृद्धि से जलवायु परिवर्तन बढ़ जाते हैं। 

अनुसंधानकर्ताओं द्वारा संरक्षणपूर्ण जुताई के सकारात्मक, नकारात्मक अथवा कोई प्रभाव न होना जैसे परिणाम भी देखे गए है। ये अनुसंधानकर्ता वैश्विक स्तर पर विभिन्न पर्यावरणीय प्रणलियों पर शोध कर रहे थे। संरक्षणपूर्ण जुताई के तहत डिनाइट्रिफिकेशन में वृद्धि का संबंध बढ़ी हुई नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन से है।

सूक्ष्म मिट्टी के ढेलों के अंदर अवायुवीय सूक्ष्म स्थानों के सृजन से होता है जहां सूक्ष्मजैविक गतिविधि में वृद्धि के फलस्वरूप ऑक्सीजन के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है। संरक्षणपूर्ण खेती के तहत अवशिष्ट के संग्रहित होने से डिनाइट्रिफाइंग बैक्टीरिया को लेबाइल सब्सट्रेट उपलब्ध हो जाता है जिससे डिनाइट्रिफिकेशन के द्वारा नाइट्रस ऑक्साइड उसका उत्सर्जन बढ जाता है।

मिट्टी की जुताई का मृदा की सान्द्रता, छिद्र आकार तथ छिद्र ज्यामिति पर गहरा प्रभाव होता है। जिससे मिट्टी तथा वायुमण्डल के बीच गैसों के रिसाव पर प्रभावित होता है। सामान्य तौर पर संरखण्पूर्ण खेती जैसे कि बिना जुताईय सान्द्रता को कम करती है, मृदा के घनत्व तथा मृदा में रिसाव प्रतिरोध को घटा देती है। जिससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो जाता है।

अतः मृदा में ग्रीन हाउस गैसों मिथेन की उपलब्ध मात्रा के कारण मिथेनोट्राफ्स द्वारा मिथेन ऑक्सीडेशन की सम्भावना बढ़ जाती है। साथ ही जुताई की सघनुता के कारण मिथेनोट्रॉफ्स की संख्या घट जाती है। जिसे सामान्य स्तर पर आने मे काफी समय लगता है। मिथेन तथा नाइट्रस ऑक्साइड  उत्सर्जन पर संरक्षणपूर्ण जुताई के नकारात्मक अथवा कोई प्रभाव न होने का यह एक कारण हो सकता है।

उर्वरक प्रबन्धनः

उर्वरक प्रबन्धन से नाइट्रोजन  उर्वरकों की दक्षता मे सुधार होता है जिससे संबंधित फसलें उगाने के लिए छ के स्त्रोत, दर स्थापना ताकि समय का उचित संयोजन प्राप्त होता है। इन फसलों की सहायता से छ की उपयोगिता, दक्षता बढ़ जाती है तथा मृदा से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम हो जाता है। अजैविक तथा जैविक छ उर्वरकों वाले अत्यधिक छ निवेश को कम करके मृदा से नाइट्स ऑक्साइड उत्सर्जन को घटा दिया जाता है।

उच्च खनिज नाइट्रोजन मात्रा  वायुमण्डल से मिथेन प्राप्ति की प्रक्रिया को कम कर देती है। इसका कारण है कि मिथेन तथा अमोनिया ऑक्सीडाइजिंग बैक्टीरिया अमोनिया की उच्च मात्रा की उपस्थिति में उनके सब्सट्रेट को परिवर्तित कर सकते है। भारत में प्रचलित उष्णकटिबंधीय जलवायु उच्च तापमान और नमी की विशेषता है जो समशीतोष्ण जलवायु की तुलना में बुवाई के समय लागू उर्वरक नाइट्रोजन से नाइट्स ऑक्साइड के नुकसान को बढ़ाता है।

अतः इस क्षति को रोकने के लिए नाइट्रोजन उर्वरक के प्रयोग के स्थान व समय का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। बुवाई के समय नाइट्रोजन उर्वरक का एक बार प्रयोग किए जाने के स्थान पर फसल की आवश्यकतानुसार अथवा छिड़काव पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए।

वायुवीय तथा अवायुवीय दोनों प्रकार की पर्यावरणीय प्रणालियों में मृदा स्वास्थ्य, को बनाए रखने, उत्पादकता में स्थायित्व लाने तथा कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए जैविक तथा अजैविक खाद का समेकित प्रयोग किया जाना चाहिए। किन्तु इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ सकता है। अतः ग्रीन हाउस गैसों को कम करने के लिए प्रबन्धन प्रक्रियाओं की तुलना करने हेतु दो महत्वपूर्ण सूचकों का प्रयोग किया जात है। ये हैं- सकल वैश्विक ताप क्षमता (एन जी डब्ल्यू पी) (नेट ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल) तथा जी एच जी तीव्रता।

सकल वैश्विक ताप क्षमता को तीन विशुद्ध प्रमुख बायोजैविक जी एच जी उत्सर्जनों के लिए परिभाषित किया जाता है। इसलिएए जी.एच.जी. शमन के लिए प्रबंधन प्रथाओं की तुलना करने के लिए उपयोग किए जाने वाले दो महत्वपूर्ण सूचकांक शुद्ध ग्लोबल वार्मिंग क्षमता और जी.एच.जी. तीव्रता है। शुद्ध ग्लोबल वार्मिंग क्षमता (एन जी डब्ल्यू पी) को तीनों प्रमुख बायोजेनिक ग्रीन हाउस गैसें के लिए शुद्ध प्रवाह के रूप में परिभाषित किया गया है।

जीएचजीआई अनाज की उपज से संबंधित है और इसे अनाज की पैदावार के लिए शुद्ध ग्लोबल वार्मिंग क्षमता का अनुपात के रूप में व्यक्त किया गया है। यद्यपि अजैविक तथा जैविक उर्वरकों के समेकित प्रयोग से कई शोधकर्ताओं द्वारा उच्च ग्लोबल वार्मिंग क्षमता रिपोर्ट किया गया, किन्तु इन प्रणालियों का एन जी डब्ल्यू पी तथा जी.एच.जी. तीव्रता अजैविक पैदावार की तुलना में कम था। संतुलित फर्टिलाइजेशन से फसल की पैदावार में वृद्धि तथा पोषकता के प्रयोग के किफायत के लाभ साथ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी आएगी।

पौधों के लिए पोषक तत्वों जैसे फास्फोरसए, पोटाश और सल्फर वाले उर्वरकों के प्रयोग से पानी भरे हुए धान के खेतों से मिथेन का उत्सर्जन कम होता है। इन पोषक तत्वों से संभवतः पौधे की वृद्धि, मिथेनोजैविक सूक्ष्मजीवी संख्या, मृदा pH तथा रिडॉक्स पोटेन्शियल प्रभावित होते हैं। जिससे धान के खेतों से मिथेन के उत्सजर्ष्न पर प्रभाव पड़ता है। उर्वरक छिड़के गए धान के खेतों में मिथेन उत्सर्जन में जल प्रबन्धन की महत्वपूर्ण भूमिका है।

खेतों में निरन्तर जल भरने के स्थान पर बारी बारी से सिंचाई जल भरना और उसे सुखाने से मिथेन के उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी देखी गई। बुवाई के समय उर्वरक छिड़काव हेतु उचित विधि तथा उपकरण का प्रयोग किए जाने से नाइट्रोजन के नाइट्स ऑक्साइड वाले गैसीय रूप में होने वाली हानि कम हुई है। वांछित गहराई पर उर्वरक की उचित मात्रा पहुंचाने के लिए ठीक से समायोजित व बीज सह उर्वरक ड्रिल के प्रयोग से नाइट्स ऑक्साइड की कमी को दूर किया जा सकता है।

 Seed cum fertilizer drill

बीज सह उर्वरक ड्रिल के साथ बुवाई

नाइट्रिफिकेशन अवरोधकः

उर्वरक में उपलब्ध नाइट्रोजन की हानि को कम करने तथा नाइट्ररोजन उपयोग की दक्षता में वृद्धि करने के लिए कार्ययोजना के तौर पर नाइट्रिफिकेशन अवरोधक का प्रयोग किया जा सकता है। किन्तु मृदा से नाइट्स ऑक्साइड तथा मिथेन उत्सर्जन पर इसका उल्लेखनीय प्रभाव हो सकता है। नाइट्रिफिकेशन अवरोधकों से अमोनियाकल का नाइट्राइट   तथा नाइट्रेट   में विघटन कम हो जाता है। इससे नाइट्रिफिकेशन की प्रक्रिया के दौरान  नाइट्स ऑक्साइड उत्पादन के लिए उपलब्ध सब्स्ट्रेट भण्डार सीमित हो जाते है।

डिनाइट्रिफिकेशन प्रक्रिया के दौरान नाइट्रेट  का नाइट्रोजन  में विघटन हो जाता है तो नाइट्स ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। नाइट्रिफिकेशन अवरोधकों द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर नाइट्रिफिकेशन हेतु   नाइट्रेट की उपलब्धता को कम करके  नाइट्स ऑक्साइड के उत्सर्जन को घटा दिया जाता है।

भारत गंगा मैदान के चावल-गेहूं की फसल प्रणाली में, वैज्ञानिकों द्वारा रिपोर्ट किया गया कि केवल यूरिया की तुलना में नाइट्रिफिकेशन अवरोधकों जैसे नीम लेपित यूरियाए, लेपित कैल्शियम कार्बाइड, नीम का तेल, डाइसायनायमाइड,  हाइड्रोक्विनॉन तथा थायोसल्फेट के प्रयोग से नाइट्स ऑक्साइड तथा मिथेन उत्सर्जन में कमी हुई है।

अतः नाइट्रिफिकेशन अवरोधक नाइट्स ऑक्साइड उत्सर्जन को 63 से 9 प्रतिशत तक कम कर सकते है। नाइट्स ऑक्साइड की कमी का यह प्रतिशत इस तथ्य को दर्शाता है कि नाइट्रिफिकेशन अवरोधकों की दक्षता अन्य नियंत्रक कारकों जैसे मिट्टी का प्रकार, जलवायु, उर्वरक तथा फसल के प्रकार पर निर्भर करती है।

Neem coated urea

नीम लेपित यूरिया

फसलः

उर्वरक प्रयोग के साथ फसल विशेषकर अनाज का उचित चयन ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जन को कम करने में सहायक होता है। 57 प्रकाशित अध्ययनों के एक मेटा विश्लेषण में पता चला कि ग्रीन हाउस सघनता यानी पैदावार जीडब्ल्यूपी चावल के लिए सबसे अधिक है, उसके बाद मक्का और गेहूं के लिए। चावल अनेक भारतीय राज्यों में लम्बे समय से प्रमुख भोजन रहा है। अतः ग्रीन हाउस गैसें समाप्त करने की कार्ययोजनाओं की अनुशंसा करते समय सांस्कृतिक महत्व को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। स्थल विशेष के अनाज पर आधारित चक्र के पालन के साथ ही सिंचाई व उर्वरक प्रबन्धन के दक्षतापूर्ण अनुपालन से ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। उच्च पैदावार वाली फसल की किस्मों के चलन के साथ साथ रोपाई की दिनांक व पौधों की उपयुक्त संख्या जीएचजीआई को कम करने का एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

निष्कर्ष

भारत की बढती हुई जनसंख्या की भोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उर्वरक के प्रयोग में वृद्धि को रोका नहीं जा सकता है। उर्वरक के प्रयेग में बढ़ोत्तरी के साथ ग्रीनहाउस गैसें विशेषकर नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन भी बढ़ेगा। भारत के प्रयोग से ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने की कार्ययोजना में खाद्य उत्पादन व फसल प्रबन्धन की प्रक्रिया में इस प्रकार उपयुक्त संतुलन लाना होगा ताकि पोषकता उपयोग की दक्षता को बढ़ाया जा सके। सकल ग्लोबल वार्मिंग की संभाव्यता तथा ग्रीन हाउस सघनता जैसे सूचकों का उपयोग एकल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की अपेक्षा प्रबन्धन प्रक्रियाओं की तुलना करने के लिए किया जा सकता है। सामान्य तथा उच्च पैदावार वाली फसलों में अनाज की पैदावार की प्रति इकाई में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होता है तथा अधिक जैव पदार्थ ब् निवेश के कारण उच्च मृदा कार्बन सीक्वेस्ट्रशन होता है। अतः ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की कार्ययोजनाय नाइट्स ऑक्साइड तथा मिथेन उत्सर्जन, कार्बन सीक्वेस्ट्रशन क्षमता तथा अन्य लाभ प्राप्त करने पर आधारित होनी चाहिए। उर्वरकों के प्रयोग के दौरान ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जन कम करने के लिए उचित प्रक्रियाओं वाले दिशानिर्देशों में निम्नलिखित सम्मिलित हैः

  1. फसल की उपयुक्त किस्म, बुवाई/रोपाई समय तथा इजुतम बीज दर का चयन।
  2. पौषों की पोषकता एवं पोषण प्रयोग दक्षता बढ़ाने के लिए उवर्रक प्रयोग की दर समय एवं विधि का उपयुक्त संयोजन।
  3. उर्वरकों का संतुलित प्रयोग।
  4. जैविक एवं अजैविक उर्वरकों का समेकिन प्रयोग।
  5. नाइट्रिफिकेशन इन्हिबिटर्स (अवरोधकों) तथा जैव उर्वरकों का प्रयोग तथा
  6. पौध पोषण एवं जल उपयोग में वृद्धि करने के लिए दक्षतापूर्ण सिंचाई जल प्रबन्धन।

 

पर्यावरण की सुरक्षा करने के साथ ही बढ़ती हुई जनसंख्या का पोषण करने के लिए भविष्य में स्थायी खेती के लिए उचच फसल उत्पादकता तथा कम ग्रीन हाउस सघनता वाली प्रणालियों की खोज की जानी आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए भविष्य के शोध कार्य को श्रेष्ठ प्रबन्धन प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करने हेतु निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिएः-

  1. सिंचाई जल, फसल की उपज तथ मृदा में नमी की मात्रा, मिट्टी में नाइट्रेट निक्षालक, अधिक मात्रा में घनत्व तथा मृदा कार्बनिक कार्बन अंश का माप लिया जाना चाहिए।
  2. ग्रीन हाउस गैसों के आंकड़ों, मृदा कार्बन भण्डारण, देश की अलग-अलग जलवायु, मृदा तथा फसल प्रणालियों में फसल की पैदावार पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसन्धान शीघ्रातिशीघ्र प्रारम्भ किया जाना चाहिए।
  3. प्रत्येक अगली फसल के लिए नाइट्रोजन की मात्रा का चयन करते समय मृदा मे शेष बची नाइट्रोजन माप लिया जाए।
  4. विविध फसलों के लिए फसल अवशेष प्रबन्धन विकल्पों के साथ नाइट्रोजन उर्वरक का स्त्रोत, दर, समय, स्थपन व प्रयोग की विधि के आधार पर विवेकपूर्ण प्रयोग किया जाना चाहिए।
  5. नाइट्रोजन उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए स्वचालित नाइट्रोजन फर्टिलाइजेशन, तथा खेत में नाइट्रोजन की कमी वाले स्थान व समय का पता लगाने हेतु संवेदकों के प्रयेग के लिए सटीक खेती (precision agriculture) को अपनाया जाना चाहिए।

स्वीकृति: हम श्री राजेश तिवारीए केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थानए भोपाल को हिंदी अनुवाद में मदद के लिए आभार व्यक्त करते हैं।


Aurhors

संगीता लेन्का1, नरेन्द्र कुमार लेन्का2, जे के साह3

1वरिष्ठ वैज्ञानिक, 2,3प्रधान वैज्ञानिक,

भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान नवीबाग, बैरसिया रोड, भोपाल 462038, (म.प्र.) 

1ईमेल: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

 

New articles

Now online

We have 348 guests and no members online