बागवानी फसलों में कीटनाशकों के दुष्प्रभाव को कम करना - एक समाधान

उद्यानिक फसलों में कीटनाशी रसायनों के अधिक प्रयोग से कई तरह की आर्थिक, पर्यावरणीय एवं स्वास्थ संबंधी समस्यायें सामने आ रही हैं। इन फसलों में फसल सुंरक्षा के लिए रसायनिक कीटनाशियों पर आवश्यकता से आधिक निर्भरता के कारण खेती के लागत खर्च बढ़ते चले जा रहे है जिससे किसानों का आर्थिक मुनाफा कम हो रहा है।

कीटनाशकों के अनियमित एवं अनियंत्रित प्रयोग के कारण कई तरह के पर्यावरणीय समस्यायें उत्पन्न हो रही है यथा हानिकारक कीटाे के कीटनाशकोे के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकसित होना, हानिकारक कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं एवं परभक्षी जीव जन्तुओं की संख्या में कमी होना एवं पर्यावरण प्रदुषित होना शामिल है।

स्वास्थ संबंधी समस्यायें मूलरूप से इसके व्यवहार की सावधानियाें एवं प्रयोग के जनकारी के आभाव के कारण हो रही है जिससे प्रयोग करने वाले किसानों को शारीरिक खतरों का सामना करना पड़ता रहता है। अनुसंशित मात्रा से अधिक प्रयोग करने के कारण इसके अवशेष सिंचाई के जल के साथ नालों के माध्यम से जल स्त्रोतों यथा तालाब, नदी, नहर और अंततः समुद्र में बहकर जातेे है जिससे इन जल स्त्रोतों के प्रदुषित होने का खतरा तो होता ही है साथ ही जलीय जीव जंतु भी आहत हो रहे है, जिससे हमारा संपूर्ण पारिस्थितकी तंत्र भी अव्यवस्थित हो रहा है।

बहुधा इस तरह की समस्यायें मुख्य रूप से किसानों के स्थानीय स्तर पर रसायनिक कीटनाशकों के खरीदने के कारण होता है जहां न तो प्रतिबन्धित कियेे गये दवाओं की सूचना उपलब्ध होती है और न ही कीटनाशकोे के उचित व्यवहार संबंधी सावधानियां। ऐसे में कृषक प्रायः इन दुकानदारों से प्राप्त अपूर्ण सूचना के आधार पर ही अधिक लाभ पाने के लोभ में आवश्यकता से अधिक मात्रा में दवाओं का प्रयोग कर देते हैं, और इसके दुष्परिणामों का दंश झेलना पड़ जाता है।

हलाकि सरकारी प्रयास इस दिशा में किये जा रहे है कि स्थानीय दुकानदारों को भी कृषि संबंधी न्युनतम जानकारी की योग्यता हो। आज के समय में बढ़ती आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह अपरिहार्य हो गया है कि किस प्रकार फसल सुरक्षा का नियमन एवं नियंत्रण हो। किस प्रकार हमारे उत्पाद अंतराष्ट्रीय खाद्य मानकों के अनुरूप हों जिसमें इन रसायनों के अवशेष न रहे, बिना अवरोध के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों तक उपभोक्ता हित के अनुरूप हमारे उत्पाद का बाजारीकरण हो।

अतः ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि सरकार एवं संबन्धित नियामक संस्थायें किसानों के साथ मिलकर एक ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित करे जिसमें रसायनिक कीटनाशकों का लाभकारी प्रयोग हो, अच्छी-अच्छी कीटनाशक विकसित एवं उपलबध हो, संबन्धित व्यवहार की जानकारी किसानों को मिले, जिससे अधिक से अधिक फसल सुरक्षा भी मिले एवं हमारा पर्यावरण भी अक्षुण्ण रहे, आर्थिक नुकसान भी कम हो एवं जीव जंन्तुओं के स्वास्थ संबंन्धी समस्यायों का भी सामाना नहीं करना पड़े।

आज के कृषि तकनीक विकास के दौर में परंपरागत उन्नत कृषि तकनीकी एवं फसल सुरक्षा के वैकल्पिक आधुनिक जानकारियों के आधार पर धीरे-धीरे इन रसायनिक कीट-व्याधि नाशकों पर निर्भरता कम की जा सकती है। हमारी कृषि पद्धति की योजना इस प्रकार बनानी चाहिए कि फसलों को कीट, व्याधि एवं खरपतवारों की समस्याया से रूबरू होना पड़े, ताकि इनसे होने वाले फसलों को कम क्षति पहुचे।

उन्नत कृषि पद्धति एवं व्यवस्था कों अपना कर निश्चित रूप से इस लक्ष्य को पाया जा सकता है जिससे रसायनिक कीट-व्याधि नाशकों की अवश्यकता को कम किया जा सके। इसके लिए उन्नत सस्य क्रियायें, कीट-रोग प्रतिराधी फसल किस्मों का चयन, कृषि अवशेष एवं गैर रसायनिक पोषक तत्वों का प्रयोग, उचित भूमि एवं जल प्रबन्धन, खेत में हनिकारक कीटों के शत्रु कीटों एवं परभक्षियांें का संरक्षण एवं संमन्वित फसल सुरक्षा प्रबान्धन पद्धति को अपना कर कृषि रसायनों पर निर्भरता कम की जा सकती है।

रसायनिक कीट-

व्याधिनाशकों  पर निर्भरता कम करने के विभिन्न उपाय एवं कृषि पद्धतियाँ

विभिन्न उन्नत कृषि उत्पादन तकनीक एवं परंपरागत उन्नत तकनीकी को अपना कर कृषि रसायनों एवं दवाओं पर निर्भरता कम की जा सकती हैं तथा अपने फसलों के अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त किये जा सकते हंै। इसके लिए आवश्यक है कि खेती के तरीकों कों कृषि परिस्थतिकी के अनुरूप व्यवस्थित किया जाय।

उपयुक्त सस्य क्रियाओं का चयन:-

कीट प्रबंधन के लिए सस्य क्रियाओं का समायोजन इस प्रकार करना चाहिए जिससे खेत एवं फसलों में कीटों की संख्या कम हो जाये एवं क्षतिकम हो। सस्य क्रियाओं में खेत में फसल अवषेष कों पुरी तरह नष्ट करना, उचित फसल चक्र अपनाना जिससे कीड़ों के जीवन चक्र बाधित हाे ट्रेप क्राॅप अर्थात मुख्य फसलों के किनारे के पंक्तिओं में ऐसी फसलों को उगाना जिसमें कीट आकर्षित हो एवं मुख्य फसल अप्रभावित रहे, उचित बीज एवं जुताई की उपयुक्त दुरी सुनिष्चत करना, खेताें की अच्छी जुताई जिससे इनमें छिपें कीड़ों के अण्डे एवं अन्य अवस्थायें नष्ट हो जायें।

फसलों की बुवाई के समय को इस तरीके से बदलाव किया जाये जिससे फसल कम प्रभावित हो। सिंचाई एवं पोषण तत्वों का प्रबंधन इस प्रकार से हो कि कीटों को आकर्षित न करे या उसकी संख्या वृद्धि के अनुकुल न हो।

प्रतिरोधक किस्मों का चयन:-

उस तरीके से फसलो के किस्में को विकसित किया जाये जिस पर कीट-व्याधि का आक्रमण कम हो। साथ ही उत्पादन गुणवन्ता भी बेहतर हो ं प्रतिरोधक किस्मों को ऐसे किस्मों के साथ लगाया जाये जिसमें कीड़ो के आक्रमण होने की संभावना हो और इस तरीके से कीड़ो की संख्या वृद्धि अवरूद्ध हो ं

जैविक नियंत्रण:-

पारिस्थितकी तंत्र में अनेक तरह के जीव जंतु व सूक्ष्मजीवी (बैक्टीरिया, कवक, विषाणु) पाये जाते हैं जो फसलों के  हानिकारक कीटों को या तो सीधे खाते हंै या इनकी विभिन्न जैविक अवस्थाओं  (अंडा, लार्वा आदि) में रोग फैला कर प्राकृतिक रूप से इनकी संख्या को नियंत्रित रखतेे है जिससे फसलों को कम क्षति होती है।

अनुसंधानों के दौरान अनेक तरह के कीट यथा, लेडी वर्ड बीटिल, क्राईसोपेरिल्स, काक्सीनेलीडस पहचाने गये है जोे अनेक हानिकारक कीटोें को खा जाते है। इसी तरह सूक्ष्म कीट ट्रईकोग्रामा, ब्रेकाॅन एवं एफेलेनीडस है, जो कीटों के अंडे, लार्वा को नुकसान पहुचा कर इन कीटों की सख्या वृद्धि को नियंत्रित रखतें हैं।

इसके अतिरिक्त अनेक रोगकारक ट्रईकोर्डर्मा, मेटारहीजियम, बैसीलस, बाववेरिया चूर्ण आदि सूक्ष्मजीविओं के उत्पाद के माध्यम से भी रोग-व्याधियों का अच्छे तरीके से प्रबन्धन किया जा सकता है। प्रायः रसायनिक कीट-व्याधि नाशको के अधिकाधिक प्रयोग से ये प्राकृतिक जीव जंतु जो, फसलो के हानिकारक कीटोें की संख्या को नियंत्रित रखते हैं, को काफी हानि पहुचती है।

ऐसे में यह आवश्यक है कि प्राकृतिक शत्रुओं एवं कृषक मित्र कीटों को संरक्षित किया जाय एवं इनकी संख्या में वृद्धि की जाय। यदि आवश्यक हो तो खेेतो में कृत्रिम तरीके से ट्राईकोग्रामा, लेडी बिटील, लेस विंग एवं अन्य लाभकारी जीव जंन्तुओं की संख्या में वृद्धि की जाय ताकि ये कारगर तरीके से हानिकारक  कीटों की संख्या वृद्धि को अवरूद्ध कर सकें।

समन्वित कीट प्रबंन्धन:-

यह कीट प्रबंन्धन की एक उन्नत तकनीक है जिसमें कीट प्रबन्धन के पारंम्परिक तरीकों एवं अन्य तरीकों यथा खेतों की गहरी जुताई, फसल अवशेष को समूल नष्ट करना, उचित समय पर फसलों की जुताई, संतुलित खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग, जुताई के समय कीटनाशी गुणों से युक्त खल्ली (नीम व करंज) का प्रयोग, जैविक या पादप कीटनाशी उत्पाद से बीज को उपचारित कर बुवाई, फसलों की समय समय पर देखभाल ताकि आरंभिक अवस्था में ही कीटों एवं क्षतिग्रस्त पौधों की रोगिंग, फेरोमोन ट्रैप एवं अन्य ट्रैप के उपयोग के माध्यम से कीटों की संख्या को खेतों से बाहर करने की प्रक्रिया आदि का इस प्रकार संयोजन किया जाता हैं कि फसलों को कम से कम क्षति पहुचे, कीटों का प्राकृतिक नियंत्रण सुलभ हो एवं पर्यावरण भी सुरक्षित रहें।

इस प्रक्रिया में कीटों की सक्रियता की अवस्था में सबसे पहले जैविक एवं पादप वाले कीटनाशकों यथा नीम तेल, लेमनग्राम तेल, यूकैलिप्टस तेल, बैसीलस चूर्ण आदि को निर्देशित मात्रा में धोल बनाकर छिड़काव करते हंैे जिससे काफी हद तक हानिकारक कीटों की संख्या कम हो जाती है। समन्वित कीट प्रबन्धन योजना में रसायनिक कीटनाशको का अत्यधिक फसल क्षति होने की संभावना की स्थिति में ही प्रयोग किया जाता हैं।

कम जहरीले रसायनिक कीटनाशियों का प्रयोग

हानिकारक रसायनिकों कीटनाशकों के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए यह आवश्यक है कि एक दम अधिक आवश्यकता के स्थिति में ही सुरक्षित कीटनाशको का उचित दिशा निर्देशन में छिड़काव सुनिश्चत हो, जिससे कीट प्रबन्धन भी बेहतर हो, पर्यावरण भी सुरक्षित रहे एवं संबन्धित प्रक्रिया में लगे लोगों एवं

जीव जंतुओं को स्वास्थ संबंधी विकार उत्पन्न होने की समस्या भी न हो। इसके लिए अनेक सुरक्षित कृषि रसायन जैविक उत्पाद बाजार में उपलब्ध रहतें है। आवश्यकता इस बात की है कि कृषक बन्धु कृषि विषेशज्ञेां के निर्देशन में मान्यता प्राप्त दुकानदारों से दवा खरीद कर निर्देशित मात्रा एवं समय पर छिड़काव सुनिश्चत करें।

उपसंहार:

इसमेें कोई शक नहीं है कि यदि कीट प्रबन्धन के विभिन्न पारंम्परिक एवं जैविक कीट प्रबन्धन के तरीकों को अपनाकर एवं अपने क्षेत्र में जागरूकता फैलाकर सामुदायिक रूप से यदि कीट प्रबंन्घन किया जाता है तो निश्चित रूप से जहरीले रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को कम एवं सीमित किया जा सकता है जिससे फसल उत्पादन भी वेहतर हो एवं पर्यावरण कृषि पारिस्थितकी तंत्र भी अक्षुण्ण रहे।

इसके लिए आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर कृषि विशेषज्ञों एवं कृषकों में वेहतर तालमेल हो ताकि समय-समय पर उपयोगी प्रक्रियाओं संबंधी सूचनाओं का आदान-प्रदान सुनिश्चित हो। आवश्यकतानुसार सुरक्षित रसायनिक कीटनाशकों की सूचना एवं उपलब्धता बनी रहे ताकि इनका सुरक्षित प्रयोग कर खाद्यान्न उत्पादन के प्राक्कलित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।


Authors:

विजय कुमार, राजीव रंजन एवं संजय कुमार साहु

कीट विज्ञान विभाग,

 डा राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर

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