जौ (होर्डियम वल्गेअर) भारत में एक प्राचीन समय से खेती की जाने वाली अनाज की फसल है। दुनिया में उत्पादन और क्षेत्रफल की मामले में धान, गेहूँ एवं मक्का के बाद यह चौथे स्थान पर है। हमारे देश भारत में जौ की खेती उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र एवं मध्य भारत में की जाती है। जौ सभी प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है। संसाधन सीमित किसानों के खेतों पर लवणतायुक्त या क्षारीय भूमि पर कम जल की उपलब्धता में भी उगाई जा सकती है। वर्ष 2022-23 के दौरान भारत में जौ का अनुमानित उत्पादन लगभग 1.37 मिलियन टन रहा।

जौ की खेती खाद्यान्न, पशु-आहार व चारे एवं माल्ट के लिए की जाती है। हमारे देश में छिलका सहित एवं छिलका रहित दो तरह की जौ का उत्पादन किया जाता है। दोनों ही प्रकार के जौ पौष्टिकता से भरपूर होते हैं।  यह खनिज लवण एवं विटामिन का एक समृद्ध स्रोत है। इसमें विद्यमान बीटा-ग्लूकन हृदय-संबंधी रोगों के जोखिम को कम करने में सहायक है। इसमें फॉस्फोरस, कैल्शियम, ताम्बा, मैग्नीशियम एवं जस्ता उपस्थित होता है जो हड्डियों को मजबूती प्रदान करते हैं। जौ प्रोटीन का भी एक अच्छा स्रोत है। इसके साथ ही इसमें विटामिन ‘बी’ के साथ-साथ जिंक, लोहा एवं सेलेनियम जैसे खनिज तत्व भी उपलब्ध होते हैं। जौ का सेवन मधुमेह रोग में भी लाभकारी है। यह रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित करता है।  

तालिका 1: विभिन्न रोगकारकों द्वारा जौ में उत्पन्न होने वाले कुछ प्रमुख रोग

फसल रोगकारक का प्रकार रोग रोगकारक
जौ (होर्डियम वल्गेअर)   कवक पीला रतुआ या धारीदार रतुआ पक्सीनिया स्ट्राईफॉर्मिस एफ. स्पे. होर्डाई  
भूरा रतुआ या पत्ती रतुआ पक्सीनिया होर्डाई  
काला रतुआ या तना रतुआ पक्सीनिया ग्रैमिनिस  
पत्ती धारी (लीफ स्ट्राइफ़) पाइरेनोफोरा ग्रैमिनीइया
हेड ब्लाइट या हेड स्कैब फ्यूजेरियम ग्रैमिनीएरम
चूर्णिल आसिता रोग (पाउडरी मिल्डयू) ब्लूमेरिया ग्रैमिनिस एफ. स्पे. होर्डाई  
नेट ब्लॉच   पाइरेनोफोरा टेरेस एफ. स्पे. टेरेस
स्पॉट ब्लॉच बाइपोलैरिस सोरोकिनियाना
टैन धब्बा (टैन स्पॉट) पाइरेनोफोरा ट्रीटीसी-रिपेनटिस
रिन्कोस्पोरियम लीफ स्कैल्ड रिन्कोस्पोरियम सिकेलिस
रैमूलेरिया लीफ स्पॉट रैमूलेरिया कॉल्लो-सिगनी
अनावृत कंड (लूज स्मट) अस्टीलैगो नूडा
आवृत कंड (कवर्ड स्मट) अस्टीलैगो होर्डाई  
जौ का अर्गट   क्लेविसेप्स परपुरिया
जीवाणु जीवाणु पत्ती धारी रोग जैन्थोमोनास ट्रांसलूसेन्स  
सूत्रकृमि मोल्या रोग सीरियल सिस्ट नेमॅटोड (हेटेरोडेरा आवेनी)
विषाणु जौ पीत वामन रोग बार्ले येलो डवार्फ वाइरस

 

जौ की फसल पर अनेक बीमारियों का आक्रमण होता है जिनसे जौ के उत्पादन व उत्पादकता को काफी क्षति पहुंचती है (तालिका 1)। उत्तर भारत के क्षेत्र में जौ में लगने वाले रोगों में पीला रतुआ या धारीदार रतुआ, भूरा रतुआ या पत्ती रतुआ, कंडवा रोग, पत्ती झुलसा, चूर्णिल आसिता, आदि रोग महत्वपूर्ण हैं, जिससे फसल उत्पादक को गंभीर आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। उत्तर भारत में लगने वाले जौ (बार्ले) के प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन निम्नलिखित है:-

धारीदार रतुआ या पीला रतुआ:

जौ का पीला रतुआ या पीली गेरुई रोग रोग पक्सीनिया स्ट्राईफॉर्मिस एफ. स्पे. होर्डाई  नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण: पीला रतुआ का संक्रमण सर्दी के मौसम में प्रारम्भ होता है जब तापमान 10–20 °C के बीच होता है और नमी प्रचुरता में उपलब्ध होती है। रोग के लक्षण संकरी धारियों के रूप में प्रकट होते हैं जिनमें पीले से संतरी पीले रंग के स्फॉट (पस्च्यूल्स) पत्ती के फलक, पत्ती आवरण, गर्दन और ग्लूम्स पर बनते हैं। तीव्र संक्रमण में यें पस्च्यूल्स बालियों और शूकों (ऑन्स) पर भी दिखाई दे सकते हैं। यह उत्तर भारत में जौ का बहुत ही विनाशक रोग है। इसका अधिक प्रकोप होने से जौ की उपज मारी जाती है।

yellow rust or striped rust

रोग-प्रबंधन:

  • नत्रजन युक्त उर्वरकों की अत्यधिक मात्रा पीला रतुआ रोग को बढाने में सहायक होती है। अत: संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें।
  • प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग की अत्यधिक अनुशंसा की जाती है और कई रतुआ प्रतिरोधी/सहिष्णु किस्में उपलब्ध हैं जैसे डीडब्ल्यूआरयूबी 137, डीडब्ल्यूआरयूबी 52, डीडब्ल्यूआरबी 73, डीडब्ल्यूआरयूबी 64, डीडब्ल्यूआरबी 91 और डीडब्ल्यूआरबी 92, आर डी 2552, आरडी 2786, आरडी 2794, आरडी 2899 आदि।
  • रोग के आने की जानकारी के लिए फसल पर कड़ी निगरानी रखें ।
  • फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद प्रोपिकॉनाजोल 25% ई.सी. अथवा टेबूकोनाजोल 25.9% ईसी का 0.1% का छिडकाव अथवा टेबूकोनाजोल 25% + ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 50% डब्ल्यू जी का 0.1% का छिडकाव करें। रोग की उग्रता व प्रसार को देखते हुए छिडकाव 15-20 दिन बाद दोहरायें।

भूरा रतुआ या पत्ती रतुआ रोग:

जौ का भूरा रतुआ या पत्ती रतुआ रोग पक्सीनिया होर्डाई  नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण: पत्ती रतुआ जिसे भूरा रतुआ के नाम से भी जाना जाता है मुख्यत: पत्तियों के ऊपरी फलक पर बिखरे हुए छोटे, गोल, नारंगी-भूरे यूरेडियल स्फॉट (पस्च्यूल्स) के रूप में प्रकट होता है। अनुकूल वातावरण में लक्षण तने, पत्ती आवरण, बालियों, ग्लूम्स व शूकों पर दिखाई दे सकते हैं। गंभीर रूप से संक्रमित बाली परिपक्वता से पहले ही मर जाती हैं। मौसम के अंत में संक्रमित पादप अंगों पर यूरेडोस्पोर्स टीलियोस्पोर्स में बदल जाते हैं। इस रोग के विकास के लिए 20-25°C के बीच तापमान की आवश्यकता होती है और नमी प्रचुरता में उपलब्ध होनी चाहिए।  

brown rust or leaf rust

रोग-प्रबंधन:

  • क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
  • फसल पोषण के लिए संतुलित उर्वरकों विशेषत: नाइट्रोजन एवं पोटेशियम का उपयोग करें। चूंकि नत्रजन युक्त उर्वरकों की अत्यधिक मात्रा रतुआ रोग को बढाने में सहायक होती है।
  • रोग के आने की जानकारी के लिए फसल पर कड़ी निगरानी रखें ।
  • फसल पर रोग के दिखाई देने के तुरंत बाद प्रोपिकॉनाजोल 25% ई.सी. अथवा टेबूकोनाजोल 25.9% ईसी का 0.1% का छिडकाव अथवा टेबूकोनाजोल 25% + ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 50% डब्ल्यू जी का 0.1% का छिडकाव करें। रोग की उग्रता व प्रसार को देखते हुए छिडकाव 15-20 दिन बाद दोहरायें।

पत्ती झुलसा या स्पॉट ब्लॉच:

जौ में पत्ती झुलसा अथवा स्पॉट ब्लॉच रोग बाइपोलारिस सोरोकिनियाना द्वारा उत्पन्न किया जाता है।

रोग-लक्षण: स्पॉट ब्लॉच रोगज़नक़ पौधों के सभी भागों यानी इंटरनोड्स, तना, नोड्स, पत्तियों, तुष, ग्लूम्स और बीज में रोग के लक्षण पैदा करने में सक्षम है। रोगज़नक़ पौधे के विकास के विभिन्न चरणों में अंकुरण-पूर्व और अंकुरण-बाद आर्द्रगलन, अंकुर झुलसा, जड सड़ना, पत्ती धब्बे और बाली झुलसा (स्पाइक ब्लाइट) का कारण बनता है। पत्तियों पर शुरूआती विक्षत छोटे, गहरे भूरे रंग के 1 से 2 मिमी लंबे विक्षत बनते  हैं जो बिना हरिमाविहीन परिधि के होते हैं। रोग सुग्राही किस्मों में यें धब्बें या विक्षत जल्दी बढकर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के अंडाकार अथवा लम्बें ब्लोच्स में बदल जाते हैं जो पत्ती को झुलसा जैसा प्रतीत होते हैं। अनुकूल वातावरण में बालियां (स्पाइकलेट्स) संक्रमित हो जाती है जिससे दानों का आकार सिकुड़ जाता है।

Kandwa disease

रोग-प्रबंधन:

  • स्वस्थ रोगमुक्त फसल के लिए आवश्यक है कि बुवाई हेतू स्वस्थ एवं रोगमुक्त बीज का चयन किया जाए।
  • बीज का उपचार: फफूंदनाशकों के साथ बीज उपचार से अंकुरित बीज और पौध को रोगज़नक़ों से बचाने में मदद मिलेगी, जो अंकुर को झुलसाते हैं। कवकनाशी कार्बोक्सिन 5% + थाइरम 37.5% के द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीज उपचार करने पर पत्ती झुलसा या स्पॉट ब्लॉच रोग की प्रभावी रोकथाम हो जाती है।
  • फसल चक्र को अपनाना, सही मात्रा में उर्वरक विशेषत: नत्रजनयुक्त उर्वरक का प्रयोग व फसल अवशेषों को नष्ट करने से रोग के विस्तार को कम करने में सहायता मिलती है। खेत के आस-पास खरपतवारों एवं कोलेट्रल पोषक पौधों को नही उगने देना चाहिए।
  • स्पॉट ब्लोच की रोकथाम के लिए क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोग प्रतिरोधी/सहिष्णु जैसे डीडब्ल्यूआरबी 101, डीडब्ल्यूआरबी 123, एचयूबी 113, आरडी 2552 आदि किस्मों की बुवाई करना चाहिए। रोग सम्भावित क्षेत्र में अतिसंवेदनशील किस्मों की बुवाई नही करना चाहिए।
  • पर्णीय छिडकाव: रोग की रोकथाम के लिए प्रोपिकोनाज़ोल या क्रेसोक्सिम-मिथाइल 3% एससी @ 0.1% और मैनकोज़ेब 75% डब्ल्यूपी @ 0.2% के साथ पर्ण छिडकाव करके प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जा सकता है। उचित कवकनाशी का प्रयोग एवं इसकी मात्रा का निर्धारण विशेषज्ञ की सलाह के अनुसार करें।

अनावृत कंडवा (लूज स्मट):

जौ का यह रोग अस्टीलैगो नूडा नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण: इस रोग में पूरा पुष्पक्रम (रैचिस को छोडकर) काले चूर्ण समूह वाली धूसर बाली में बदल जाता है। रोग आंतरिक रूप से बीज जनित रोगज़नक़ अस्टिलगो नुडा के कारण होता है और केवल फूल आने के समय ही प्रकट होता है। रोग ग्रसित बालियाँ स्वस्थ बालियों की अपेक्षा जल्दी निकाल आती हैं। संक्रमित बालियों में उपज नुकसान सौ फीसदी रहता है।

अनावृत कंडवा (लूज स्मट):

रोग-प्रबंधन:

  • अनावृत कंडवा के के लिए कार्बोक्सिन 75% डब्ल्यू पी या कार्बेंडाजिम 50% डब्ल्यू पी या कार्बोक्सिन 5% + थीरम 37.5% डब्ल्यू एस. @ 2.0-2.5 ग्राम/किग्रा बीज की दर से बीज का उपचार करें।
  • बीज को मई-जून के महीने में सौर उपचारित किया जा सकता है। इस हेतु बीज को चार घंटे के लिए पानी में भिगोकर 10-12 घंटे के लिए धूप में रख दें। इसके बाद बीजों को सूखी जगह पर रख दें।
  • खेत में संक्रमित बालियों को एकत्र करके खेत के बाहर जला दें।

आवृत कंडवा रोग:

जौ का यह रोग अस्टीलैगो होर्डाई  नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण: गहरे भूरे रंग के स्मट बीजाणु पौधों के पूरी बाली की जगह लेते हैं और बीजाणु पौधे की परिपक्वता तक एक पारदर्शी झिल्ली से घिरे रहते हैं। जब थ्रेसिंग द्वारा बीजाणु अलग हो जाते हैं, तो वे बीज को संक्रमित कर देते हैं। अनुपचारित खेत की कटाई के बाद मिट्टी में आवृत कंडवा की कठोर बीजाणु गेंदें आमतौर पर पायी जाती हैं।

आवृत कंडवा रोग

रोग-प्रबंधन:

  • आवृत कंडवा के के लिए कार्बोक्सिन 5% + थीरम 37.5% डब्ल्यू एस. @ 2.0-2.5 ग्रा/किग्रा बीज या टेबूकोनाजॉल 2 डीएस (2% डब्ल्यू/डब्ल्यू) से @ 1.5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से बीज का उपचार करें।
  • बीज को मई-जून के महीने में सौर उपचारित किया जा सकता है। इस हेतु बीज को चार घंटे के लिए पानी में भिगोकर 10-12 घंटे के लिए धूप में रख दें। इसके बाद बीजों को सूखी जगह पर रख दें।
  • खेत में संक्रमित बालियों को एकत्र करके खेत के बाहर जला दें।

चूर्णिल आसिता रोग:

जौ का चूर्णिल आसिता रोग ब्लूमेरिया ग्रैमिनिस एफ. स्पे. होर्डाई  नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण: जौ का यह रोग उच्च पौध सघनता, नत्रजन युक्त उर्वरकों की अत्यधिक मात्रा के उपयोग, उच्च आपेक्षिक आर्द्रता और ठंडे मौसम वाली परिस्थितियों में पनपता है। प्रारम्भ में पत्तियों की ऊपरी सतह पर अनेक छोटे-छोटे सफेद धब्बे बनते हैं जो बाद में पत्ती की निचली सतह पर भी दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण में यह धब्बे शीघ्र बढ़ते हैं और पर्णच्छद, तना, बाली के तुषों (ग्लूम्स) एवम् शूकों (ऑन्स) पर भी फैल जाते हैं। रोगग्रस्त पत्तियाँ सिकुड़कर ऐंठने लगती हैं और विकृत हो जाती हैं तथा अंत में पत्तियों का रंग पीला व कत्थई होकर पत्ती सूख जाती है। रोगग्रस्त पौधों की बालियों में दानें छोटे एवं सिकुड़े हुए बनते हैं तथा यह आधी खाली भी रह जाती है।

चूर्णिल आसिता रोग

रोग-प्रबंधन:

  • फसल पोषण के लिए संतुलित उर्वरकों (विशेषत: नाइट्रोजन उर्वरकों) का उपयोग करें। चूंकि नत्रजन युक्त उर्वरकों की अत्यधिक मात्रा रोग को बढाने में सहायक होती है।
  • समय पर बुवाई, उचित पौध सघनता व उपयुक्त जल निकास रोग प्रबंधन में सहायक होते हैं।
  • फसल के रोग संक्रमित होने की जानकारी के लिए फसल पर कड़ी निगरानी रखें।
  • लक्षण दिखने पर प्रोपीकोनाजोल (1 मि.ली. /लीटर पानी) का छिड़काव कर सकते हैं। रोग की उग्रावस्था में 12-15 दिन के बाद छिड़काव दोहरायें।

 


Authors:

रविन्द्र कुमार, संतोष कुमार बिश्नोई, लोकेन्द्र कुमार, चुनी लाल, जोगेन्द्र सिंह, ओम वीर सिंह,

ईश्वर सिंह एवं ज्ञानेन्द्र सिंह

भाकृअनुप-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल-132001 (हरियाणा)

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