वर्मीकंपोस्ट, देशी खाद का श्रेष्ठ विकल्प

केंचुओं द्वारा कृषि अवशिष्ट को पचाकर उत्तम किस्म का कंपोस्ट बनाया जाता है| केंचुए के अपशिष्ट यानि मल, उनके कोकून, सूक्ष्म जीवाणु, पोषक तत्व और विघटित जैविक पदार्थों का मिश्रण वर्मी कंपोस्ट कहलाता है|

प्रकृति ने केंचुओं को अद्भुत क्षमता प्रदान की है|  वे स्वयं के भार से अधिक मल-मूत्र का त्यागकर उत्कृष्ट कोटि का कंपोस्ट बना सकते हैं| वर्मीकंपोस्ट में 1.2 - 2.5 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.6 - 1.8 प्रतिशत  फॉस्फोरस तथा 1.0 - 1.5 प्रतिशत पोटाश की मात्रा पाई जाती है| इस कंपोस्ट में एक्टीनोमाइसीट्स की मात्रा गोबर की खाद की तुलना में 8 गुना अधिक पाई जाती है| इसके अतिरिक्त वर्मीकंपोस्ट में सूक्ष्म पोषक तत्व संतुलित मात्रा में तथा एंजाइम व विटामिन भी पाए जाते हैं | 

केंचुओं के प्रकार  

प्रकृति में लगभग 700 किस्म के केंचुए पाए जाते हैं|  इनमें से 293 प्रजातियों को लाभकारी पाया गया है| मुख्यतया तीन प्रकार के केंचुए अधिक लाभकारी है|

एपिजिक - ये भूमि में 1 मीटर की गहराई तक ही जाते हैं और कृषि अपशिष्टों को अधिक खाते हैं| इनकी कुछ प्रजातियां है| आईसीनिया फोईटीडा, फेरेटिमा इलोन्गेटा आदि | 

इंडोज़िक - ये केंचुए भूमि में गहरी सुरंग बनाते हैं| ये केंचुए कृषि अपशिष्टो को कम व मिट्टी को अधिक खाते हैं|    

डायोजिक - ये केंचुए 1 से 3 मीटर की गहराई पर रहते हैं एवं दोनों प्रजातियों के बीच की श्रेणी में आते हैं|

राजस्थान की परिस्थितियों से आईसीनिया फोईटीडा प्रजाति के केंचुए सबसे उपयुक्त पाए जाते हैं | इनकी लंबाई 3 - 4 इंच और वजन आधा से एक ग्राम तक होता है | ये लाल रंग के होते हैं जो 90 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ व 10 प्रतिशत मिट्टी खाते हैं | ये केंचुए 4 सप्ताह में वयस्क होकर प्रजनन योग्य हो जाते हैं |

वर्मीकंपोस्ट बनाने की विधि

वर्मीकंपोस्ट बनाने के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करते हैं जो ऊंचा तथा छायादार हो | छाया नहीं होने की स्थिति में वर्मीबेड के ऊपर छप्पर डालकर छाया करनी चाहिए, क्योंकि केंचुओं को अधिक प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है |

वर्मीकंपोस्ट बनाने की विधि

केंचुए अंधेरे में अधिक क्रियाशील रहते हैं | प्रजनन एवं खाद निर्माण क्रिया के लिए 30 प्रतिशत नमी 25 - 30 डिग्री सेल्सियस तापमान आवश्यक है| वर्मीकंपोस्ट बनाने के लिए बेड (क्यारी) की लंबाई 40 - 50 फीट और चौड़ाई 3 - 4 फीट रखते हैं |

लंबाई व चौड़ाई को आवश्यकतानुसार कम या ज्यादा कर सकते हैं, परंतु वर्मीकंपोस्ट तैयार होने पर उसको एकत्र करने में सुविधा के लिए चौड़ाई 4 फीट तक ही रखते हैं | आवश्यकतानुसार एक छप्पर के नीचे एक से अधिक क्यारियां बना सकते हैं |

क्यारी में मामूली सड़ा हुआ भूसा, तिनके, कड़वी, जूट आदि को सतह पर 3 इंच की मोटाई में तह लगाकर बीछोना बनाया जाता है | बिछावन को पानी से नम कर दिया जाता है |

इस बिछावन पर 2 इंच मोटाई की एक परत कंपोस्ट या गोबर की बिछाई जाती है और पुनः इस परत को पानी से नम कर देते हैं | इस परत पर वर्मीकंपोस्ट, जिसमें केंचुए व कोकून होते हैं डाल दी जाती है | इस परत के ऊपर गोबर व मामूली सडा हुआ कृषि अपशिष्ट पदार्थ मिलाकर बिछा दिया जाता है |

इस तरह परतो की कुल ऊंचाई लगभग डेढ़ फीट तक हो जाती है | इसको टाट या घास-फूस से ढक दिया जाता है | इस ढेर पर समय-समय पर पानी का छिड़काव करना चाहिये |

उचित परिस्थितियों में वर्मीकंपोस्ट 60 दिन में बनकर तैयार हो जाता है | वर्मीकंपोस्ट तैयार हो जाने पर पानी का छिड़काव बंद कर देते हैं जिससे केंचुए क्यारी में नीचे की परत में चले जाते हैं | उसके बाद ऊपर से वर्मीकंपोस्ट को इकट्ठा कर लेते हैं | 

वर्मीकंपोस्ट के लाभ

  • वर्मीकंपोस्ट देशी खाद की तुलना में अधिक श्रेष्ठ किस्म का होता है | इसमें गोबर की खाद की तुलना में अधिक मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं |
  • वर्मी कंपोस्ट के उपयोग से मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है अतः भूमि का कटाव रुकता है |
  • वर्मीकंपोस्ट में एक्टीनोमाइसीट्स की मात्रा देशी खाद की तुलना में 8 गुना अधिक होने से फसलों में रोग प्रतिरोधकता बढ़ती है |
  • वर्मीकंपोस्ट के उपयोग से खेत में ह्यूमस की मात्रा बढ़ती है | 
  • वर्मी कंपोस्ट के उपयोग से खेत में खरपतवार व दीमक का प्रकोप कम होता है |
  • केंचुए ऑक्सिन नामक हार्मोन का स्त्राव करते हैं जो पौधों की वृद्धि एवं रोगरोधी क्षमता बढ़ाता है |
  • वर्मी कंपोस्ट टिकाऊ खेती के लिए बहुत महत्वपूर्ण है तथा यह जैविक खेती की दिशा में एक नया कदम है |

वर्मीकंपोस्ट प्रयोग विधि 

वर्मीकंपोस्ट का उपयोग विभिन्न फसलों में अलग-अलग मात्रा में किया जाता है | खेत की तैयारी के समय 2.5 - 3.0  टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग कर जुताई कर मिला लेते हैं|

खाधान्न फसलों में 5-6 टन प्रति हेक्टेयर वर्मीकंपोस्ट प्रयोग किया जाता है| वर्मीकंपोस्ट भुरभुरा होने के कारण कृषक इसका उपयोग बुवाई के समय ऊर कर भी करते हैं|


Authors

रेखा चौधरी, मंजू नेटवाल और सुशीला चौधरी

श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविधालय, जोबनेर

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