Soil Health- an integral part of the beneficial and sustainable agriculture.

भारत की लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका का मूल आधार कृषि है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण कृषि योग्य जमीन दिन प्रतिदिन घटती जा रही है, साथ ही साथ इसकी गुणवत्ता में उल्लेखनीय कमी आती जा रही है। बीसवी श्‍ादी के उत्तरार्ध में देश मेे हरि‍त क्रांति से कृषि उपज में गुणात्मक बढ़ोत्तरी हुई। जिसके मूल में अधिक उपज देने वाली किस्में, रासायनिक उर्वरक एवं व्यापक पैमाने पर पाक-संरक्षक उपायों का अपनाये जाना था। जिसके दुष्परिणाम कृषि उत्पादन की कमी के रूप में बाद के दशकों में दिखाई देने लगे।

जिसका एक प्रमुख कारण मृदा गुणवत्ता में आई उत्तरोतर कमी को भी माना गया। जिसके अनिगिनत वैज्ञानिक सन्दर्भ उपलब्ध है। अतः मृदा स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखना आधुनिक कृषि की सबसे बड़ी एवं विषम चुनातियों में से एक है ।

मृदा स्वास्थ्य क्‍या है  

मृदा अथवा जमीन को अभी तक एक निर्जीव संसाधन माना जाता रहा है। परन्तु तथ्य इसके एकदम विपरीत है। मृदा एक जीवंत निकाय है। जिसके परिभाषित जैविक, रासायनिक और भौतिक गुणधर्म होते है। इनमे से किसी भी एक गुणधर्म में परिवर्तन अथवा बदलाब मृदा के मूलभूत स्वरुप में, उसके स्वभाव में उल्लेखनीय परिवर्तन कर देते है।

फलतः मृदा की उर्वरता में खासी कमी देखने को मिलती है। उदाहरण के तौर पर, किसानो द्वारा मुख्य पोषक तत्वों से युक्त रासानिक उर्वरको एवं क्षारीय सिंचाई संसाधनो के अंधाधुंध उपयोग ने मृदा स्वास्थ्य सम्बंधित अनेको प्रश्न खड़े कर दिए है। उत्तर भारत के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ की भूमि को एक वक्त काफी उपजाऊ माना जाता था वो अब कम उत्पादक हो गई है।

इस प्रकार परिस्थितयो की वजह से उत्पन्न मृदा को अस्वस्थ मृदा में रखा जा सकता है। कृषको द्वारा कृत्रिम रूप से संश्लेषित रासायनिक उर्वरकों को जैविक खादों पर प्रधानता देने से मृदा में उपस्थिति लाभदायक सूक्ष्म जीवानुओ की संख्या भारी कमी भी अस्वस्थ मृदा का प्रमुख कारण है।

मृदा स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक

  • दिन प्रतिदिन बढता औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण
  • कृषि रासायनों का अनियंत्रित उपयोग
  • सिंचाई के संस्सधानो का अवैज्ञानिक प्रयोग
  • सघन खेती
  • कृषि उर्वरको का असंतुलित प्रमाण में प्रयोग
  • नैसर्गिक कार्बनिक खाद का न्यूनतम अथवा न उपयोग करना

मृदा स्वास्थ्य में क्षरण से होने वाले दुष्प्रभाव

  • मनुष्यों, जानवरों में कुपोषण की समस्या
  • पेयजल की गुणवत्ता में नुकसान कारक बदलाव
  • खाद्य श्रंखला में विषाक्त तत्वों का प्रवेश
  • फसल उत्पादन और उत्पादकता में गिरावट
  • मृदा-जैवविविधता में कमी/ विलुप्त होने के आसार

भारी औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के फलस्वरूप उत्सर्जित होने वाले प्रदूषित जल एवं अपशिष्ट  पदार्थो में कैडमियम (Cd), लैड (Pb), निकिल (Ni), क्रोमियम (Cr) इत्यादि विषाक्त तत्वों की मात्रा ज्यादा होती है। किसान भाई जब इन  पदार्थो को पोषक तत्वों की तरह कृषि प्रयोग करने लगते है तब स्नै-स्नै इन विषाक्त तत्वों की  मात्रा बदने लगती है। जिसके फलस्वरूप मृदा की पौधों को पोषण प्रदान करने की व्यस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। अंततः ये विषाक्त तत्वों पौधों से होते हुए मानव शरीर को भी क्षति पहुंचाते है।

रासायनिक खादों एवं फसलों को रोगों, हानिकारक कीटों और खर-पतवार के नियंत्रण के लिए उपयोग में आने वाले अनेको अन्य रासायनों में जमीन में रहने वाले असंख्य सूक्ष्म जीवों के अस्तित्त्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है।

इसके अलावा पारंपरिक अवैज्ञानिक रीत से अत्यधिक सिंचाई करने से आसानी से प्राप्य पोषक तत्वों के जमीन में नींचे उतर जाते है। जिसके कारण जमीन की नैसर्गिक अम्लता में बदलाव दर्ज किये गए है। बारम्बार एक ही रासायनिक खाद का किसी फसल विशेष में बहुत बरसों तक सतत उपयोग से भी जमीन की उर्वरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

सामान्यतः मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ, मृदा की अवस्था के अच्छे सूचक होते है। परन्तु रासायनिक खादों पर अत्यदिक निर्भरता एवं नैसर्गिक खाद के कम प्रयोग से भी जमीन के स्वस्थ्य पर बुरा असर पड़ा है। जिस से एक समय की उर्वर जमीन भी अनुपजाऊ की श्रेणी में आ गयी है।

मृदा को स्वस्थ रखने के विकल्प एवं प्रबंधन कार्यनीति

१. समन्वित पोषण प्रबंधन (Integrated Nutrient Management)

समन्वित पोषण प्रबंधन एक ऐसी पादप पोषण वयवस्था है जिसमे पोषक तत्वों के प्राकृतिक रूप से उपलब्ध कार्बनिक, जैविक एवं कृत्रिम रूप से संश्लेषित रासायनिक  स्रोतों का समुचित और संतुलित समन्वय किया जाता है। ये तीनो पोषक तत्वों के स्रोतों फसलों की आवश्यकता के अधर पर एक विशेष अनुपात (१:२:२ :: जैविक:कार्बनिक:रासायनिक खाद) प्रदान करने की सलाह दी जाती है ।

प्राकृतिक कार्बनिक खाद में से पौधों को पोषक तत्व के साथ साथ मृदा में कार्बन भी उपलब्ध होता है जो की सूक्ष्म जीवों के लिए ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है । जिसके कारण मृदा जीवंत रहती है और सूक्ष्म जीवों के लिए एक अनुकूल आवास सिद्ध होती है ।

प्रकृति प्रदत्त जीवाणुओं को पहचानकर उनसे बिभिन्न प्रकार के पर्यावरण हितैषी उर्वरक तैयार किये गए हैं जिन्हे जैव उर्वरक (बायोफर्टिलाइजर) या 'जीवाणु खाद' कहते है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है की जैव उर्वरक जीवित उर्वरक है जिनमे सूक्ष्मजीव विद्यमान होते है। यह प्राकृतिक तरीके से पौधों का पोषण करता है। ये रासायनिक खाद से बेहतर व सस्ता सस्ता होता है।  साथ ही यह मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता को बनाए रखता है।

जीवाणु खाद के प्रकार

(क) नाइट्रोजन यौगिकीकरण करने वाले : दलहनी फसलें -- राईजोबियम , अन्न फसलें -- एज़ोटोबैक्टर , एज़ोस्पाइरिलम , एसीटोबैक्टर आदि, चावल/धान -- नीली हरी शैवाल

(ख) फॉस्फोरस घुलनशीलता के लिए : एसपर्जिलस, पैनिसिलियम, सयूडोमोनॉस, बैसिलस आदि

(ग) पोटाश व लोहा घुलनशीलता के लिए : बैस्लिस, फ्रैच्युरिया, एसीटोबैक्टर आदि

(घ) प्लांट ग्रोथ प्रमोटिंग राईजोबैक्टिरिया : बैस्लिस, फ्रलोरिसैंट, आदि

(ड) माइकोराईजल कवक : एक्टोमाईकोराईजा तथा अरवस्कुलर माईकोराईजा

रासायनिक उर्वरक आज भी पोधों के लिए पोषण के प्रमुख स्रोत हैं। बदती आवादी को ध्यान में रहते हुए, पोधों के पोषण के लिए इनका कोई दूसरा संभावित विकल्प भी निकट भविष्य में नहीं दीखता है. इसलिए अधिक फसलोत्पादन के लिए पोषक तत्वों की जरुरत पूरा करने के लिया रासायनिक खादों का प्रयोग करने अनिवार्य हो गया है.

पोधों के लिए समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन के पीछे की मूल विचारधारा ये है की १)  खेत और बाहरी स्रोतों से उपलब्ध कार्बनिक पदार्थों का यथा संभव उपयोग. २) मृदा में पोषक तवो की उपलब्धता बढाने के लिए जविक उर्वरको का महतम्म उपयोग.३) जैव उर्वरक का उपयोग करने के लिए कृषक समुदाय को प्रोत्साहित करना जिससे रासायनिक खादों पर निर्भरता कम की जा सके. जिसके फलस्वरूप मृदा की भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणधर्मों को लम्बे समय तक बनाये रखा जा सके. इसके अलावा, समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन के अन्य मुख्य उद्देश्य सही समय पर पोषक तत्वों सही मात्रा प्रदान करना है। साथ ही साथ कृषि लागत में उल्लेखनीय कमी लाना जिस से फसल उत्पादन ज्यादा लाभकारी और टिकाऊ बन सके.

२) समन्वित कीट नियंत्रण (Integrated Pest Management):

समन्वित कीट नियंत्रण  एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कृषि से संबंधित विभिन्न परिस्थितियों एवं पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाते हुए नासी कीट, रोगों और खरपतवार के नियंत्रण की तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। इससे नासी जीवों की संख्या, सघनता इत्यादि नियंत्रित होते हैं।  इसके अलावा विषाक्त किट रासायनों का उपयोग भी कम किया जा सकता है. जिसका कारण मृदा में रहने वाले सूक्ष्म जीवो अपना अस्तित्व कायम रख सकते है.

३) सिंचाई व्यवस्था एवं पानी की गुणवत्ता :

भारत में प्रचलित परंपरागत सतह आधारित सिचाई पद्धतियां अमूमन कम प्रभावशाली, श्रम साध्य एवं मृदा की उर्वरता को नुकसान कारक होती है. इन विधियों में जल की क्षति तो होती ही साथ ही साथ मृदा की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है. अतः यदि ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई की विधियों को अपनाया जाए तो इन हानियों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। मृदा-स्वास्थय को सिंचाई के पानी की गुणवत्ता का भी खास असर पड़ता है. अतः जहाँ तक हो सके पानी की गुणवत्ता की जाँच करा कर ही सिंचाई में उपयोग करना लाभकारी होगा।

किसान मित्रो से ये अनुरोध है की जहाँ तक हो सके मृदा के स्वास्थ्य को कायम रखें ताकी फसलोत्पादन में निरंतर वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।


 Authors

डॉ. पुनीत वी. मेहता और डॉ. सुशील सिंह  

सहायक प्राध्यापक, खाद्य गुणवत्ता परीक्षण प्रयोगशाला

न. म. कृषि महाविद्यालय, नवसारी कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी, गुजरात (३९६ ४५०)

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