Panchagavya - an important medicine for plants 

पिछले दो-तीन दशकों से निरंतर रासायनिक खादों के प्रयोग से जमीन की उर्वरक शक्ति में कमी आई है। इसी तरह आने वाले समय में जमीन रसायनों का ढे़र बन जायेगी और हम सिर्फ पुरानी बातों को दोहरा के चीजों को बढ़ावा देते रहेंगे। आज जरुरत है तो हमारी कृषि कार्य प्रणाली में बदलाव लाने की फिर से हमे हमारे पुरखों के बताए पथ पर अग्रसित होना होगा।

उनकी कृषि कार्य प्रणाली को अपनाना होगा और कम लागत में अधिक मुनाफे का मूल मंत्र अपनाना होगा। जैसा कि हमारे माननीय प्रधान मंत्री जी भी बोलते हैं कि 2022 तक किसानों की आमदनी दौगुनी हो जाएगी लेकिन इसकी पूरी सफलता कम लागत व अधिक मुनाफे पर टिकी हुई है।

किसान भाइयों को परम्परागत कृषि को अपनाना होगा तभी आने वाली पीढ़ी को एक सुखद और खुशहाल जीवन मिल पाएगा। प्राचीन काल से ही भारत जैविक आधारित कृषि प्रधान देश रहा है। सदियों से विभिन्न प्रकार के उर्वरक उपयोग होते आए हैं जो पूर्णतः गाय के गोबर और गोमूत्र पर आधारित थे। उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के तरल जैविक उर्वरकों आज परम्परागत रूप से उपलब्ध हैं।

पंचगव्य क्या है?

पंचगव्य का अर्थ है पंच+गव्य अर्थात गौमूत्र, गोबर, दूध, दही, और घी के मिश्रण से बनाये जाने वाले पदार्थ को पंचगव्य कहते हैं। प्राचीन समय में इसका उपयोग खेती की उर्वरक शक्ति को बढ़ाने के साथ पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता था। पंचगव्य एक अत्यधिक प्रभावी जैविक खाद है जो पौधों की वृद्धि एवं विकास में सहायता करता है और उनकी प्रतिरक्षा क्षमता को बढ़ाता है| पंचगव्य का निर्माण देसी गाय के पांच उत्पादों से होता है क्योंकि देशी गाय के उत्पादों में पौधों के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व पर्याप्त व सन्तुलित मात्रा में पाये जाते हैं|

Panchagavya - an important medicine for plants फ़ायदे

  • भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी
  • भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार
  • फसल उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में वृद्धि
  • भूमि में हवा व नमी को बनाये रखना
  • फसल में रोग व कीट का प्रभाव कम करना
  • सरल एवं सस्ती तकनीक पर आधारित

आवश्यक सामिग्री 

पंचगव्य निम्नलिखित सामिग्री से बनाया जाता है- 

  • 5 किलोग्राम देशी गाय का ताजा गोबर
  • 3 लीटर देशी गाय का ताजा गौमूत्र
  • 2 लीटर देशी गाय का ताजा कच्चा दूध
  • 2 लीटर देशी गाय का दही
  • 500 ग्राम देशी गाय का घी
  • 500 ग्राम गुड़
  • 12 पके हुए केले

पंचगव्य बनाने की विधि

  • प्रथम दिन 5 कि.ग्रा. गोबर व 1.5 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह मिलाकर मटके या प्लास्टिक की टंकी में डाल दें।
  • अगले तीन दिन तक इसे रोज हाथ से हिलायें। अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल दें व फिर से ढक्कन बंद कर दें।
  • इस मिश्रण को 15 दिनों के लिए छाँव में रखना है और प्रतिदिन सुबह और शाम के समय अच्छी तरह लकड़ी से घोलना है|
  • इस प्रकार 18 दिनों के बाद पंचगव्य उपयोग के लिए बनकर तैयार हो जायेगा |
  • इसके बाद जब इसका खमीर बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लें कि पंचगव्य तैयार है। इसके विपरीत अगर खटास भरी बदबू आए तो हिलाने की प्रक्रिया एक सप्ताह और बढ़ा दें। इस तरह पंचगव्य तैयार होता है अब इसे 10 ली. पानी में 250 ग्रा. पंचगव्य मिलाकर किसी भी फसल में किसी भी समय उपयोग कर सकते हैं।
  • अब इसे खाद, बीमारियों से रोकथाम, कीटनाशक के रूप में व वृद्धिकारक उत्प्रेरक के रूप में उपयोग कर सकते हैं। इसे एक बार बना कर 6 माह तक उपयोग कर सकते हैं। इसको बनाने की लागत 70 रु. प्रति लीटर आती है।

Panchgavya - Method of making Panchgavya

पंचगव्य की उपयोग विधि

पंचगव्य का प्रयोग आप गेहूँ, मक्का, बाजरा, धान, मूंग, उर्द, कपास, सरसों, मिर्च, टमाटर, बैंगन, प्याज, मूली, गाजर, आलू, हल्दी, अदरक, लहसुन, हरी सब्जियाँ, फूल पौधे, औषधीय पौधे आदि तथा अन्य सभी प्रकार के फल पेड़ों एवं फसलों में महीने में दो बार कर सकते हैं|

इसे 10 ली. पानी में 250 ग्रा. पंचगव्य मिलाकर किसी भी फसल में किसी भी समय उपयोग कर सकते हैं।  बीज उपचार से लेकर फसल कटाई के 25 दिन पहले तक 25 से 30 दिन के अन्तराल में इसका उपयोग किया जा सकता है।

पंचगव्य को निम्नलिखित प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है-

1. बीज व जड़ उपचार द्वारा

पंचगव्य के 3% घोल में बीज या जड़ को 10-15 मिनट तक डूबोने के बाद 30 मिनट तक छाया में सुखाकर बुवाई करें। 300 मि.ली. पंचगव्य 60 किलो बीज या जड़ का उपचार करने के लिए पर्याप्त होता है।

2. फल पेड़, पौधों और फसल पर छिड़काव करके

पंचगव्य के 3% घोल को फल पेड़-पौधों और फसल पर छिड़काव करके प्रयोग किया जा सकता है। 3 लीटर पंचगव्य एक एकड़ फसल के लिए पर्याप्त होता है।

3. सिंचाई के पानी के साथ प्रवाहित करके

पंचगव्य के 3% घोल को सिंचाई के पानी के साथ प्रवाहित करके प्रयोग किया जा सकता है। 3 लीटर पंचगव्य एक एकड़ खेत के लिए पर्याप्त होता है।

4. बीज भंडारण के लिए

बीज को भंडारण करने से पहले पंचगव्य के 3% घोल में 10-15 मिनट के लिए डुबो कर रखें उसके बाद सुखाकर भंडारण करें। ऐसा करने से बीज को लगभग 360 दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

पंचगव्य के प्रयोग में सावधानियाँ

  1. पंचगव्य का उपयोग करते समय खेत में नमी का होना आवश्यक है।
  2. एक खेत का पानी दूसरे खेतों में नहीं जाना चाहिए।
  3. इसका छिड़काव सुबह 10 बजे से पहले तथा शाम 3 बजे के बाद करना चाहिए।
  4. पंचगव्य मिश्रण को हमेशा छायादार व ठण्डे स्थान पर रखना चाहिए।
  5. इसको बनाने के 6 माह तक इसका प्रयोग अधिक प्रभावशाली रहता है।
  6. टीन, स्टील व ताम्बा के बर्तन में इस मिश्रण को नहीं रखना चाहिए।
  7. इसके साथ रासायनिक कीटनाशक व खाद का उपयोग नहीं करना चाहिए।
  8. पंचगव्य के उचित लाभ के लिए 15 दिन में एक बार प्रयोग करना चाहिए।

पंचगव्य का प्रभावपंचगव्य का प्रभाव

  • पंचगव्य का छिड़काव करने से पौधों के पत्ते आकार में हमेशा बड़े एवं अधिक विकसित होते हैं तथा यह प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तेज करता है जिससे पौधे की जैविक क्षमता बढ़ जाती है एवं उपापचय क्रियायें तेज हो जाती हैं।
  • तना अधिक विकसित और मजबूत होता है जिससे परिपक्वता के समय पौधे पर जब फल लगते हैं तब पौधा फलों का वजन सहने में अधिकतम सक्षम होता है तथा शाखाएं भी अधिक विकसित तथा मजबूत होती हैं।
  • जड़ें अधिक विकसित तथा घनी होती हैं तथा इसके अलावा वे एक लंबे समय के लिए ताजा एवं स्वस्थ रहती हैं। जड़ें मृदा में गहरी परतों में फैलकर वृद्धि करती हैं तथा आवश्यक पोषक तत्वों एवं पानी को अधिकतम मात्रा में अवशोषित कर लेती हैं जिससे पौधा स्वस्थ बना रहता है तथा पौधों में तेज हवा, अधिक वर्षा व सूखे की स्थति को सहने की एवं रोगों के प्रति लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है।
  • पंचगव्य के प्रयोग से फसल की अच्छी उपज मिलती है। यह वातावरण की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी एक समान फसल की पैदावार देने में सहायता करता है। यह न केवल फसल की उपज को बढ़ाता है बल्कि अनाज, फल, फूल व सब्जियों का उत्पादन एक बेहतर रंग, स्वाद, पौष्टिकता तथा विषाक्त अवशेषों के बिना करता है जिससे फसल की बाजार में अधिक कीमत मिलती है। यह बहुत सस्ता एवं अधिक प्रभावकारी है जिससे कृषि में कम लागत पर अधिक लाभ मिलता है।

Authors:

जितेन्द्र सिंह बम्बोरिया1, सुमित्रा देवी बम्बोरिया2 , केसरमल चौधरी3 और राम लाल जाट4

1श्री कर्ण नरेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर, 2कृषि विज्ञान केंद्र, मौलासर (राज.), 3कृषि विभाग, डेगाना (राज.)  

4वैज्ञानिक, भारतीय दलहन अनुसंधान संथान, कानपुर

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