मिर्च की पौध की तैयारी व देखभाल

मिर्च की खेती पौध तैयार कर के की जाती है। अच्छे और स्वस्थ पौध अच्छी खेती का आधार होती है। पौध की तैयारी पौधशाला या नर्सरी में की जाती है। इसके लिए जगह का चुनाव बहुत मत्वपूर्ण है। पौधशाला ऐसी जगह पर होना चाहिए जहाँ छाँव न हो और पर्याप्त मात्रा में धूप उपलब्ध हो।

पौधशाला का क्षेत्र सीमित होना चाहिए ताकि देखभाल आसान हो। पौधशाला की मिट्टी उपजाऊ और दोमट होनी चाहिए जहाँ जल निकासी की व्यवस्था हो। अगर पौधशाला की भूमि ऊंचाई पर हो तो अच्छा है जिससे वर्षा काल में पानी ठहरने का भय न हो साथ ही साथ सिंचाई की व्यवस्था भी होना चाहिए।

Chilli Seedlingsएक बात का ध्यान रखे की अन्य टमाटर वर्गीय सब्जियां जैसे की टमाटर, बैगन आदि के पौध मिर्च के साथ तैयार न करें। इससे रोगों के प्रकोप का डर कम हो जाता है।

पौधशाला का क्षेत्र व आकार :

कितने क्षेत्र में मिर्च पौध की तैैयारी करनी है, यह इस बात पर निर्भर करता है की मिर्च की खेती कितने क्षेत्रफल में होनी है। प्रायः एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए ४००-५०० ग्राम बीज संकर किस्मों की चाहिए तथा १-१.५ कि. ग्रााा. बीज अन्य उन्नत किस्मों के लिए चाहिए।

सामन्यतः बीजाई क्यारियों में की जाती है जिसकी लम्बाई २-३ मीटर, चौड़ाई १-१.५ मीटर और उचाई १५ सेंटीमीटर तक हो सकती है। क्यारियों के बीच लगभग ५० से. मी. की दूरी होनी चाहिए जिससे आवागमन तथा सिंचाई में सुविधा हो।

पौध लगाने का समय:

मि‍र्च की खरीफ फसल के लिए पौध की बीजाई का समय मानसून के आगमन पर निर्भर करेगा। प्रायः मानसून दक्षिण भारत में जून महीने में आता है इसलिए बीजाई मई के महीने में की जाती है। उत्तर भारत में बारिश जुलाई में आती है इसलिए बीजाई जून में की जाती।

शीतकाल में बीजाई फरवरी या मार्च में की जाती है क्योंकि ठण्ड में पौधों का विकास ठीक नहीं होता। अगर किसान भाइयों के पास पोलीहॉउस की सुविधा हो तो बीजाई दिसंबर के माह में भी की जा सकती है क्योंकि पोलीहॉउस मे पौधों के विकास के लिए आवश्यक तापमान होता है।  

पौधशाला की मिट्टी का उपचार:

मिट्टी कई प्रकार के रोगजनक कीटाणू और कीड़ों का घर होता है। अगर मिट्टी का सही उपचार नहीं किया गया तो उपयुक्त वातावरण मिलते ही वे क्रियाशील हो जाते है और उगाये हुए पौधों को हानि पहुंचा सकते है।

मिट्टी का उपचार सौर ऊर्जा या सूर्यताप से कर सकते है। सूर्य ताप से मिट्टी उपचार के लिए पहले पौधशाला की भूमि की गहरी जुताई करके हलकी सिंचाई कर दी जाती है। इसके पश्चात् मिटटी को पारदर्शी पॉलिथीन (२००-३०० गेज) से धक दी जाती है।

पॉलिथीन के किनारों को पत्थर से या मिट्टी से दबा लेना चाहिए ताकि अंदर की वाष्प बहार न आ पाए तथा बहार की हवा अंदर न जा पाए। इससे पॉलिथीन के अंदर का तापमान काफी बढ़ जाता है और कई तरह के कीटाणुएवं सूत्रकृमि का खात्मा हो जाता है।

सूर्याताप पद्धति को और कारगर बनाने के लिए मिट्टी के सिंचाई के बाद ४०% फॉर्मलडिहाइड (२५० ml प्रति १० लीटर के दर से) का छिड़काव कर सकते जिससे कीटाणु के साथ कीड़ों के अण्डों का भी खात्मा हो जाता है।

क्यारियों की तैयारी: 

एक बार जब मिट्टी का उपचार हो जाता तब क्यारियां बनायीं जा सकती है। मिट्टी के गहरी खुदाई के पश्चात् मिट्टी के ढेलों को फोड़ कर गुड़ाई करनी चाहिए और मिट्टी को भुरभुरी कर लेनी चाहिए। इसके साथ खरपतवार निकाल कर क्यारियां बना लेनी चाहिए।

खेती के क्षेत्रफल के अनुसार उचित अकार के क्यारियां बनाएं। इसके पश्चात् क्यारियों में सड़ी हुई गोबर की खाद, कम्पोस्ट या केचुए की खाद डाल सकते है और मिट्टी के साथ अच्छी तरह से मिला ले।

मिट्टी में कई प्रकार के कीड़े और रोगजनक कीटाणु जैसे की फफूंद और जीवाणु होते है जो उचित वातावरण मिलने पर क्रियाशील हो जाते है और पौधों को नुकसान पहुंचा सकते है। अतः खाद के साथ रासायनिक दवाइयां जैसे की फफूंदनाशक या जीवाणुनाशक मिला लेना चाहिए।

रासायनिक दवाइयां जैसे की फोरेट 10 जी एक ग्राम अथवा क्लोरोपायरीफास 5 मि. ली. प्रति ली. पानी के हिसाब से क्यारियों में डाल सकते है। इसके अतिरिक्त कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से क्यारियों में मिलाकर उपचार करते हैं या फफूंदनाशक दवा जैसे की कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से मिलाकर भी भूमि उपचार किया जाता है।

तदुपरांत बीज बोते हैं। अगर किसान भाई जैविक विधि से पौधशाला तैयार करना चाहते है जिसमे रसायन का प्रयोग वर्जित है तो क्यारी की भूमि का जैविक विधि से उपचार करने के लिये ट्राइकोडर्मा विरडी की 8-10 ग्राम मात्रा को 10 किलो गोबर खाद में मिलाकर क्यारी में बिखेर दें तत्पश्चात् सिंचाई कर दें।  

मि‍र्च का बीजोपचार:

बीज जनित फफूंद से फैलने वाले रोगों को नियंत्रित करने के लिए बुवाई से पहले बीजों का उपचार आवश्यक है। सके। बीज उपचार के लिये 1। 5 ग्राम थाइरम+1। 5 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) अथवा 2। 5 ग्राम डाइथेन एम-45 या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी का प्रति किलो बीज के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए।

बुआईकी विधि : 

क्यारियों के चौड़ाई के समानान्तर पक्तियां बनायीं जाती है जिसमें बिजाई की जाती है। यह पंक्तियाँ ५-१० से. मी. की दूरी पर खींचनी चाहिए जिसकी गहरायी १ - १.५ से. मी. से ज्‍यादा नहीं होनी चाहिए। ज्यादा गहरी पंक्ति बीजों के जमाव पर असर डालती है।

इन पंक्तियों पर बीज लगभग 1 से. मी. के अंतर में बोते हैं। बीज बोने के पश्चात उसे कम्पोस्ट, मिट्टी व रेत  के मिश्रण से ढक देना चाहिए जिसका अनुपात १:१:१ होना चाहिए। इस मिश्रण में थाइरम या केप्टान जैसे फफूंदनाशक भी मिला सकते है।

बीजों को ०.५ से. मी. की ऊंचाई तक ढंक देते हैं। बीज बोने के बाद क्यारियों को पुआल या सूखी घास से ढक देना चाहिए। इससे दो फायदे है। पहला सिंचाई के पश्चात् बीजों के लिए नमी तथा अंकुरण के लि‍ए उचित तापमान बना रहेगा। दूसरा यह की बुवाई होने के बाद सिंचाई करने पर ढकें हुए बीजों पर सीधे पानी नहीं पड़ेगा अन्यथा मिश्रण बीज से हट जायेगा और बीजों का अंकुरण प्रभावित होगा।  

 बुवाई के बाद देखभाल:

बीज के बुवाई के पश्चात् फव्वारे/झारे से हलकी सिंचाई करनी चाहिए। गर्मी के समय दिन में एक बार सिंचाई करें और सर्दियों में दो दिन के अंतराल में पानी दे सकते है। ज्यादा पानी से बीज के अंकुरण में समस्या होगी और बीज सड़ भी सकते है।

बोवाई के पांच दिन के बाद से रोज घास उठा कर एक बार देख लेना चाहिए की अंकुरण हुआ है की नहीं। जब ५० प्रतिशत बीजों का अंकुरण हो जाये तोह क्यारियों से घास हटा लेना चाहिए। कई बार मिट्टी उपचार के पश्चात् भी खरपतवार उगते है। इस परिस्थिति में हाथों से खरपतवार हटा लेना चाहिए।

पौधों की देखभाल:

यदि क्यारियों में पौधों का घनत्व अधिक हो तो १ से २ सेमी। की दूरी पर पौधों को छोड़ते हुए अन्य पौधों को उखाड़ कर हटा देना चाहिए। इससे पौधों का विकास सही होता है। तने और जड़ दोनों ही मजबूत होते।

बारिश के मौसम में ज्यादा घने पौधों में उकटा  रोग की समस्या भी हो सकती है। उकटा रोग से बचाव के लिए बाविस्टिन या कप्टाफ का छिड़काव कर सकते है (२ ग्राम/ लीटर)।

पौधशाला में रस चूसने वाले कई प्रकार के कीट होते है जैसे की सफ़ेद मक्खी, माहु, जैसिडस  अवं थ्रिप्स जो विषाणु जनित बिमारियों को फैलाते है। इनसे बचाव के किसान भाई पौधशाला को ४०० मेष साइज के नेट ढक सकते है।

इससे विषाणु रहित स्वस्थ पौध तैयार होती है। अन्यथा इनके नियंत्रण के लिए नीम के तेल का छिड़काव कर सकते है (५ मिली/ लीटर)। रासायनिक दवाईयां जैसे की डिफ़ेन्थिओरॉन (२ ग्राम/ली) या फलोनिकामिड़ (०। ५ ग्राम/ली) का भी छिड़काव किया जा सकता है। इनका छिड़काव बुवाई के २०-२५ दिन के बाद कर सकते।     

पौधों को उखाडऩा :

पौधें बुवाई के ३५-४० दिन पश्चात् तैयार हो जाते है जब उनकी १०-१२ से। मी। की ऊंचाई हो जाये और ५-६ पत्तियां आ जाएं। इस समय वे खेतों में रोपाई के निकाले जा सकते है। पौध निकालने से पहले हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि पौध उखाड़ते समय जड़ ज्यादा टूटे नहीं। पौध सावधानी से निकालें और 50 या 100 पौधों के बंडल बना लें।


Authors: 

डा. अर्पिता श्रीवास्तव,

शाकीय विज्ञान विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र, पूसा, नई दिल्ली

Email: asrivastava45@gmail। com

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