मशरूम की खेती: अतिरिक्त आय का साधन

मशरुम एक प्रोटीनयुक्त खाद्य फसल है। इसमें शुष्क भार के आधार पर 28 से 30 प्रतिशत तक उच्च श्रेणी का प्रोटीन होता है। मशरुम खाने से प्रोटीन की कमी से होने वाले रोगों का बचाव होता है। प्रोटीन के अतिरिक्त इसमें विटामिन-सी एवं विटामिन-बी काॅम्प्लेक्स ग्रुप में थाइमिन, राइबोफ्लेविन, नियासिन, फोलिक एसिड़ तथा कोबालएमिन (बी- 12) है जो कि गर्भवती महिलाओं व बच्चों के लिये आवश्यक है।

इसमें लवण जैसे सोडियम, पोटेशियम, फाॅस्फोरस व लोहा प्रचुर मात्रा में होते हैं। मशरुम खाने से खुन की कमी के ‘एनिमिक’ रोगियों को लाभ होता है। सोडियम तथा पोटेशियम का अनुपात अधिक होने के कारण यह उच्च रक्तचाप को भी दूर करता है। मशरुम एक कम कैलोरी देने वाला भोजन है, इसलिये यह मोटापा दूर करने के लिये भी उपयोगी है।

इसमें शर्करा तथा स्टार्च नहीं होने के कारण इसे ‘‘डिलाइट आफ डाइबिटिक” कहा जाता है। यह मधुमेह रोगियों के लिये एक वरदान है। इसमें काॅलेस्ट्राॅल बिल्कुल नहीं होता तथा अर्गोस्ट्राॅल होता है जो कि पाचन क्रिया के दौरान विटामिन-डी में बदल जाता है। अतः यह हृदय रोगियों के लिये भी अच्छा भोजन है।

राजस्थान में मशरुम की 2 प्रजातियों की खेती आसानी से व्यवसायिक स्तर पर की जाती है। इन प्रजातियों की खेती का उपयुक्त समय निम्नानुसार हैः-

  1. सफेद बटन मशरुम या एगेरिकस बाइस्पोरस या एगेरिकस वाइटोरकस   - शीतकाल (नवम्बर से फरवरी तक ) 16 से 25 डिग्री सेल्सियम तापमान।
  2. ढींगरी मशरुम या प्लूरोटस - समशीतोष्णकाल (अक्टबूर से अप्रैल ) 10 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान।

1. सफेद बटन मशरुम

इस छत्रक मशरुम को उगाने के लिए विशेष प्रकार के कृत्रिम खाद या कम्पोस्ट की आवश्यकता होती है। कम्पास्ट बनाने में लगभग 28 दिन का समय लगता है। कम्पोस्ट बनाने के लिये  गेहूँ का भूसा-1000 किलोग्राम, गेहूँ का चापड़-150 किलोग्राम, यूरिया-18 किलोग्राम, जिप्सम-35 किलोग्राम केे अनुपात मे सामग्री की जरूरत होती है। 

मैदानी इलाकों में कम से कम 300 किलो या इससे अधिक भूसे की खाद (कम्पोस्ट) तैयार करनी चाहिये। कम्पोस्ट को तोड़कर बार बार पलटना पड़ता है, जिससे इसके पूरे भाग में समरूपता से पकाव आ जाये। 

खाद तैयार करने से पहले दो दिन तक भूसे पर बार-बार पानी डालें ताकि भूसा पानी सोख लेवे। तीसरे दिन शाम को गेहूँ के चापड़ की पूरी मात्रा व यूरिया की पूरी मात्रा को अच्छी तरह मिलाकर भिगोयें एवं उसका ढे़र बना देवें। ढ़ेर की चैड़ाई 5 फुट एवं ऊँचाई 5 फुट रखनी चाहिये। ढे़र को लकड़ी या लोहे के पट्टों की सहायता से अच्छी तरह बनाया जा सकता है। यह काम छांयादार व हवादार स्थान पर किया जाना चाहिये।

छठे दिन भूसे के ढऱे के चारों ओर ऊपर की छः इंच परत हटाकर एक तरफ रख देवें तथा पूरे ढ़ेर को तोड़कर ठण्डा होने के बाद फिर से ढ़ेर बनाना चाहिये एवं अंदर का सूखा भूसा बाहर तथा बाहर का अंदर कर देना चाहिये। इस तरह से करीब 7-8 पलटाई की जाती है।

तेरहवें दिन फिर ढ़ेर को तोड़कर उसमें जिप्सम मिलाया जाता है तथा मिश्रण में पानी की मात्रा का ध्यान रखा जाता है, मात्रा कम होने पर पानी डाला जाता है। सोलहवें, उन्नीसवें तथा बाइसवें दिन पलटाई देनी पड़ती है। पच्चीसवें दिन इस ढे़र को तोड़कर इसमें क्लोरोपाइरीफाॅस 1 मिलीलीटर दवा प्रति लीटर पानी की दर से मिलाई जाती है और फिर ढ़ेर बनाया जाता है।

28 वें दिन यदि कम्पोस्ट में अमोनिया की गंध नहीं आती हो तो तैयार कम्पोस्ट में शीघ्र ही 0.1 प्रतिशत (1 किलो प्रति 1000 किलो कम्पोस्ट) की दर से स्पान (मशरूम का बीज) मिला देना चाहिये। तैयार कम्पोस्ट को फाॅर्मलीन एवं बाविस्टीन से (15 मिलीलीटर 0.5 ग्राम) बिजाई के 48 घंटे पहले उपचारित करें।

बटन मशरूम के लिये एस-11, यू-3, पन्त-31 तथा एम एस.-39 किस्में अच्छी हैं। पाॅलीथिन की थैलियों को अखबार से ढ़क देते हैं। इन पर सुबह-शाम थोड़ा पानी छिड़का जाता है। लगभग 15-20 दिन के पश्चात् कम्पोस्ट पर सफेद रेशेदार कवक दिखाई देने लगती है। कवक के फैल जाने के बाद उस पर केसिंग की जाती है।

केसिंग में कम्पोस्ट पर फेले हुए कवक को निष्कीटन की हुई केसिंग पदार्थ से ढ़का जाता है। इसके लिये दो साल पुरानी गोबर की खाद को दो साल पुरानी बची हुई कम्पोस्ट के साथ 1:1 के अनुपात में या बगीचे की खाद वाली मिट्टी और सामान्य मिट्टी को 4:1 के अनुपात में एवं गोबर की खाद, कम्पोस्ट, मिट्टी तथा रेती (1:1:1:1) का मिश्रण या गोबर की खाद 1 भाग तथा जला हुआ चावल का छिलका 1 भाग का मिश्रण बनाकर उसे 2 प्रतिशत फाॅर्मेलिन से उपचारित करते हैं।

3 लीटर फाॅर्मेल्डिहाइड 40 प्रतिशत को 40 लीटर पानी में घोलकर एक घन मीटर केसिंग सामग्री में अच्छी तरह मिलाकर उसे पाॅलीथिन या अखबार से ढ़क देते हैं तथा 48 घंटे बाद इसे खोल देते हैं तथा बार-बार पलटते हैं 6 से 7 दिन में फार्मेलिन की गंध निकल जाती है। इसका पी.एच. भी उदासीन या क्षारीय होना चाहिये। केसिंग सामग्री हल्की तथा जिसमें हवा का आदान-प्रदान बहुत अच्छा हो सके तथा पानी को सोख सके होनी चाहिये।

कवक फैली हुई कम्पोस्ट पर से गीले अखबार हटा कर उसे केसिंग सामग्री की डेढ़ इंच मोटी तह से ढ़क देते हैं तथा इसे अच्छी तरह गीला कर देते हैं। कमरे में हवा के लिए खिड़कियां आदि खोल देते हैं। केसिंग करने के 15 दिन बाद कमरे का तापमान 15-18 डिग्री सेल्सियस हो तो मशरुम बनने लगते हैं जो कि 4 से 5 दिन में चुनने योग्य हो जाते हैं। मशरुम की टोपी जब 2-4 से.मी. हो तब तोड़ लेनी चाहिये।

मशरुम लगने के बाद करीब 50-60 दिन तक मशरुम बराबर निकलती रहती है, सिर्फ समय पर पानी देना होगा एवं कमरे का तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से कम होना चाहिये। इसे ताजा ही काम में लिया जाता है। इसे रेफ्रीजरेटर में 4-6 दिन तक पाॅलीथिन में बंद करके 5-10 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रखा जाता है या फिर डिब्बाबंदी की जाती है।

2. ढींगरी मशरुम

इस छत्रक को उगाने की विधि आसान है क्योंकि इसका पादप अवशेष सहज में उपलब्ध है एवं बिना कम्पोस्ट तैयार किये ही उगाया जाता है। 100 लीटर पानी,  20 किलो भूसे को भिगोने के लिये पर्याप्त होगा। चावल या गेहूँ किसी एक का भूसा लेकर 18 घंटे तक पानी में भिगायें तथा इसमें बाविस्टिन 75 पी.पी.एम. तथा फाॅर्मेलिन 500 पी.पी.एम. (7 ग्राम बाविस्टिन 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. तथा 125 मिलिलीटर 40 प्रतिशत फाॅर्मेल्डिहाइड) को 100 लीटर पानी में डाल कर टब या ड्रम में मिलायें। 

18 घंटे बाद भूसे को पानी से निकाल कर साफ व पक्के फर्श पर अथवा जाली पर डाल देवें ताकि अतिरिक्त पानी निकल जाये। इसके बाद इस भूसे में 2.5 प्रतिशत की दर से स्पान (250 ग्राम स्पाॅन 10 किलो भीगे हुए भूसे में) तथा पाॅलीथिन की थैलियों में छेद कर दिये जाते हैं ताकि हवा का आदान-प्रदान को सके। उचित वातावरण में 16 से 20 दिन में ही भीगे हुए भूसे का रंग दूधिया हो जाता है।

कवक के कारण भूसा आपस में चिपक जाता है इस स्थिति में थैलियों में भरे हुए भूसे को जो कि एक गट्ठर का रुप ले लेता है, बाहर निकाल कर रख देते हैं तथा नमी बनाये रखने के लिये गट्ठरों पर दिन में दो या तीन बार पानी छिड़का जाता है।

कमरे के फर्श पर भी पानी भरा जा सकता है तथा दीवारों को भिगोया जा सकता है। 4-6 दिन में मशरुम/ ढींगरी निकलने लगती हैं। एक-दो दिन बाद सफेद पाउडर निकलने से पहले ही जब किनारे सिकुड़ने लगें तब इन्हें चुन लेना चाहिये। चुनते समय घुमाव देकर जड़ से भूसा हटाकर साफ कर लिया जाता है।

पहली फसल लेने के बाद भी पानी छिड़कते रहते हैं तथा दूसरी व तीसरी फसल भी ली जाती है। इस प्रकार बुवाई से चुनाई तक का कुल समय डेढ़ से दो माह का होता है। इस छत्रक को अधिकतर ताजा ही खाया जाता है।

पाॅलीथिन की थैलियों में रखकर फ्रीज में इसे 5-7 दिन तक रखा जा सकता है। यदि उपज अधिक हो तो इन्हें धूप में या 45 डिग्री सेल्सियस पर इन्क्यूवेटर में सुखाया जा सकता है। 9 से 10 किलो ताजा मशरुम सूखकर 1 किलो ही रह जाता है।

उपयोग में लाने से कुछ मिनट (5 से 7 मिनट) पहले पानी में भिगोने से वह ताजे समान हो जाते हैं। मशरूम का बीज (स्पान) प्राप्त करने के लिए आप मशरूम स्पान प्रयोगशाला, पौध व्याधि विभाग, राजस्थान कृषि अनुसंधान केन्द्र, दुर्गापुरा (जयपुर) से सम्पर्क कर सकते हैं।


Authors:

सुशीला चैधरी, रामनिवास यादव, सुमित्रा एवं राजपाल यादव

पौध व्याधि विभाग, राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान, दुर्गापुरा (जयपुर)

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