मसूर की उन्नतशील खेती

दलहनी वर्ग में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल है। प्रचलित दालों में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथ-साथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते है यानि सेहत के लिए फायदेमंद है। मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेड, 3.2 मिग्रा. रेशा, 38 मिग्रा0, कैल्शियम, 7 मिग्रा0 लोहा, 0.21 मिग्रा, राइबोफ्लोविन, 0.51 मिग्रा0 थाईमिन तथा 4.8 मिग्रा0 नियासिन पाया जाता है अर्थात मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज लवण और विटामिन्स से यह परिपूर्ण दाल है।

रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है क्यांेकि यह अत्यन्त पाचक है। दाल के अलावा मसूर का उपयोग विविध नमकीन और मिठाईयाॅ बनाने में भी किया जाता है। इसका हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है।

दलहनी फसल होने के कारण मसूर की जड़ों में गाॅठे पाई जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नत्रजन का स्थिरीकरण भूमि में करते है जिससे भूमि का उर्वरा शक्ति बढ़ती है। अतः फसल चक्र में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्वों की भी कुछ प्रतिपूर्ति करती है!

इसके अलावा भूमि क्षरण को रोकन के कारण मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है। मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परिस्थितियों वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।

भूमिः

दोमट से भारी भूमि इसकी खेती के लिए अधिक उपयुक्त है।

भूमि की तैयारी:

पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2-3 जुताईयां देशी हल/कल्टीवेटर से करके पाटा लगाना चाहिए।

संस्तुत प्रजातियाॅ:

क्र0सं0 प्रजातियाॅ उत्पादकता (कु./हे.) पकने की अवधि (दिन)  उपयुक्त क्षेत्र विशेषतायें
1 आई.पी.एल.-81 18-20 120-125 बुन्देलखण्ड छोटा दाना, रतुआ रोग सहिष्णु
2 नरेन्द्र मसूर-1 20-22 135-140 सम्पूर्ण उ0प्र0 रतुआ अवरोधी, मध्यम दाना
3 डी0पी0एल0-62 18-20 130-135 सम्पूर्ण उ0प्र0 दाना मध्यम बडा
4 पन्त मसूर-5 18-20 130-135 सम्पूर्ण उ0प्र0 मध्यम दाना रतुवा अवरोधी
5 पन्त मसूर-4 18-20 135-140 मैदानी क्षेत्र दाने छोटे रतुवा अवरोधी
6 डी0पी0एल0-15 18-20 130-135 मैदानी क्षेत्र दाना मध्यम, बड़ा रतुआ सहिष्णु
7 एल-4076 18-20 135-140 सम्पूर्ण उ0प्र0 पौधे गहरे हरे रंग के कम फैलने वाले
8 प्ूासा वैभव 18-20 135-140 मैदानी क्षेत्र तदैव
9 के0-75 14-16 120-125 सम्पूर्ण उ0प्र0 पौधे मध्यम, दाने बडे, रतुआ ग्रसित
10 एच0यूएल0-57(मालवीय विश्वनाथ) 18-22 125-135 सम्पूर्ण उ0प्र0 छोटा दाना तथा रतुआ अवरोधी
11 के0एल0एस0-218  18-20 125-130 पूर्वी उ0प्र0 छोटा दाना एवं रतुआ अवरोधी
12  आई0पी0एल0-406 15-18 125-130 पश्चिमी उ0प्र0 बड़ा दाना तथा रतुआ अवरोधी
13 शेखर-3 20-22 125-130 सम्पूर्ण उ0प्र0 रतुआ अवरोधी एवं उकठा अवरोधी
14 शेखर-2 20-22 125-130 सम्पूर्ण उ0प्र0 रतुआ अवरोधी एवं उकठा अवरोधी
15 आई0पी0एल-316 18-22 115-120 बुन्देलखण्ड उकठा अवरोधी

बुवाई का समय:

समय से बुवाई अक्टूबर के मध्य से नवम्बर के मध्य तक तथा विलम्ब की दशा में दिसम्बर के प्रथम सप्ताह उपयुक्त है। सीड ड्रिल द्वारा मसूर की बुवाई अधिक लाभप्रद है।

बीज दर व बीजोपचार:

सामान्य बुवाई हेतु 30-40 किलोग्राम तथा पिछेती बुवाई के लिए 40-50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त है।
10 किग्रा0 मसूर के बीज को 200 ग्राम (एक पैकेट)राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिए, विशेषकर उन खेतों में जिनमें पहले मसूर न बोई गयी हो। यह बीजोपचार एवं रासायनिक बीजोपचार के पश्चात किया जाए। पी.एस.बी. का अवश्य प्रयोग करें।

उर्वरकः

भूमि परीक्षण के आधार पर ही उर्वरक का प्रबंधन करना चाहिए। सामान्य बुवाई में 20 किग्रा0 नत्रजन, 60 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्र्रा0 पोटाश तथा 20 किग्रा गंधक/हे0 प्रयोग करें। सिंचाईः
एक सिंचाई फूल आने के पूर्व करनी चाहिए।

फसल सुरक्षाः

(क) प्रमुख कीट:

1) माहूॅ कीट:
इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पत्तियों, तनों एवं फलियों का रस चूस कर उन्हें कमजोर कर देते है। माहॅू मधुस्राव करते हैं जिस पर काली फफॅूद उग जाती है जिसके फलस्वरूप प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न होती है।

2) अर्˜ कुण्डलीकार कीट (सेमीलूपर)
इस कीट की सूडियाॅ फलियों में छेद बनाकर अन्दर घुस जाती है तथा अन्दर ही अन्दर खाती रहती है। तीव्र प्रकोप की दशा में फलियों खोखली हो जाती है। तथा उत्पादन में गिरावट आ जाती है।

आर्थिक क्षति स्तरः

क्र.सं. कीट का नाम फसल की अवस्था आर्थिक क्षति स्तर
1 माहूॅ कीट वानस्पतिक एवं फली अवस्था 5 प्रतिशत प्रभावित पौधे
2 अर्˜ कुण्डलीकार कीट फूल एवं फलियाॅ बनते समय 2 सूॅडी प्रति 10 पौधे
3 फली बेधक कीट फलियाॅ बनते समय 5 प्रतिशत प्रभावित पौधे

नियंत्रण:-

1. समय से बुवाई करनी चाहिए।

2. यदि की का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर पार कर गया हो तो निम्नलिखित कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए।

3. माहूॅ कीट खड़ी फसल में कीट नियंत्रक हेतु डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस.एल. 750 मिली. प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली. प्रति हेक्टेयर की दर से भी प्रयोग किया जा सकता है।

4. फली बेधक कीट एवं अर्˜कुण्डलीकार कीट की नियंत्रण हेतु निम्नलिखित जैविक/रसायनिक कीटनाशकों में से किसी एक रसायन का बुरकाव अथवा 500-600 लीटर पानी में घोल कर प्रति

  • हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
  • बैसिलस थूरिजेंसिस (बी.टी.) की कस्र्टकी प्रजाति 1.0 किग्रा।
  • फेनवैलरेट 20 प्रतिशत ई.सी. 1.0 लीटर।
  • क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 2.0 लीटर।
  • मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस.एल.1.0 लीटर।
  • खेत की निगरानी करते रहे है। आवश्यकतानुसार ही दूसरा बुरकाव/छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करें, एक कीटनाशी का लगातार दो बार प्रयोग न करें।

(ख) प्रमुख रोगः-

1) जड़ सड़नः

बुवाई के 15-20 दिन बाद पौधा सूखने लगता है। पौधे को उखाड़ कर देखने पर तने पर रूई के समान फफूॅद लिपटी हुई दिखाई देती है।

2) उकठाः

इस रोग में पौधा धीरे-धीरे मुरझााकर सूख जाता है। छिलका भूरे रंग का हो जाता है तथा जड़ को चीर कर देखे तो उसके अन्दर भूरे रंग की धारियाॅ दिखाई देती है। उकठा रोग पौधे के किसी भी अवस्था में हो सकता है।

3) गेरूई:-

इस रोग में पत्तियों तथा तने पर नारंगी रंग के फफोले बनते है जिससे पत्तियाॅ पीली होकर सूखने लगती है।

नियंत्रण के उपाय

1)शस्य क्रियायेंः

  • गर्मियों में मिट्टी पलट हल से जुताई करने से भूमि जनित रोगों के नियंत्रण में सहायता मिलती है।
  • जिस खेत में प्रायः उकठा लगता हो तो यथा सम्भव उस खेत में 3-4 वर्ष तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए।
  • उकठा से बचाव हेतु नरेन्द्र मसूर-1, पन्त मसूर-4, मसूर-5, प्रिया, वैभव आदि प्रतिरोधी प्रजातियों की बुवाई करना चाहिए।

2) बीज उपचार:-

बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत$कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत (2ः1) 3.0 ग्राम, अथवा ट्राइकोडरमा 5.0 ग्राम प्रति किग्रा0 की दर से शोधित कर बुवाई करना चाहिए।

3) भूमि उपचार:-

भूमि जनित एंव बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडर्मा विरडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-70 किग्रा. सड़ी हुयी गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त, बुवाई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से मसूर के बीज/भूमि जनित रोगों का नियंत्रण हो जाता है।

4) पर्णीय उपचारः

गेरूई रोग के नियंत्रण हेतु मैंकोजेब 75 डब्यू.पी. 1.0 किग्रा. अथवा प्रोपीकोनाजोल 25 प्रतिशत ई.सी. 500 मिली0 मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 500-600 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

(ग) प्रमुख खरतपतवार

बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि।

नियंत्रण के उपायः

  1. खरपतवारनाशी रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण करने हेतु फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरन्त पहले मिट्टी मे मिलाना चाहिए। अथवा पेण्डीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर अथवा एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई.सी. की 4.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर उपरोक्तानुसार पानी में घोलकर फ्लैट फैन नोजल से बुवाई के 2-3 दिन के अन्दर समान रूप से छिड़काव करें।
  2. यदि खरपतवारनाशी रसायन का प्रयोग न किया गया हो तो बुवाई के 20-25 दिन बाद खुरपी से निराई कर खरपतवारों को नियंत्रण करना चाहिए।

कटाई तथा भण्डारण:-

फसल पूर्ण पकने पर कटाई करें। मड़ाई के पश्चात अनाज को भण्डारण मंे कीटों से सुरक्षा के लिए अल्यूमिनियम फास्फाइड (सेल्फास) की 3 गोली प्रति मैट्रिक टन की दर से प्रयोग में लायें।

मसूर की खेती के प्रभावी बिन्दु

  • क्षेत्र विशेष हेतु संस्तुत प्रजाति के प्रमाणित बीज की बुवाई समय से करें।
  • बीज शोधन अवश्य करें।
  • फास्फोरस एवं गन्धक हेतु सिंगिल सुपर फास्फेट का प्रयोग करें।
  • बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर दाने के आकार एवं बुवाई के समय को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करें।
  • रोग का नियंत्रण समय से करेें।
  • गर्मी में मसूर की बुवाई वाले खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने पर भूमि जनित रोगों एवं खरपतवारों से सुरक्षा होती है।
  • जिन खेतों में उकठा, बीज गलन अधिक लगता हो उनमें 3-4 वर्ष तक मसूर की फसल नहीं लेनी चाहिए।
  • मसूर का प्रमुख रोग उकठा, गेरूई तथा किट्ट रोग के लिए रोग रोधी प्रजातियाॅ, जैसे-नरेन्द्र मसूर, पंत मसूर 4, पन्त मसूर-5 आदि की बुआई करनी चाहिए।
  • जीवांश खादों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
  • शुद्व एवं प्रमाणित बीज की बुवाई राइजोबियम से बीज शोधन के बाद ही करनी चाहिए।
  • प्रजातियों का चयन स्थान, समय एवं सुविधा विशेष के आधार पर करना चाहिए।
  • तीन वर्ष बाद बीज अवश्य बदल देना चाहिए।
  • खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर सही समय पर एवं उचित विधि से करना चाहिए।
  • कीड़े एवं बीमारी से बचाने के लिए नियमित निगरानी करनी चाहिए तथा आई.पी.एम. विधि अपनानी चाहिए।
  • खरपतवार होने पर उसका नियंत्रण निराई गुड़ाई विधि से किया जाना चाहिए।
  • भूमि के स्वस्थ्य एवं संरचना के लिए भूमि शोधन अवश्य करना चाहिए।
  • बीज बोने से पहले बीज का जमाव परीक्षण कर लेना चाहिए।
  • जिप्सम/सिंगल सुपर फाॅस्फेट उर्वरक के रूप में सल्फर की प्रतिपूर्ति करनी चाहिए।
  • भण्डारण के लिए मसूर ठीक से सूखाकर ही रखना चाहिए।

Authors:

डा. दिनेश तिवारी, डा. एन.के. पाण्डेय, डा. अर्चना दीक्षित, डा. नितिन कचरू यादव

कृषि विज्ञान केन्द्र, ललितपुर

बाॅदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, बाॅदा

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