Climate Smart Agricultural Activities for Jute Production

हमारी कृषि आज भी वर्षा और मानसून पर निर्भर है। जिसके कारण कृषि की उत्तपादकता मे हमेशा अस्थिरता रहती है। बारिश का समय पर ना होना, अगर होना भी कभी अत्‍याधि‍क तो कभी कम होना, आदि‍ बारिश की अनिमियताऐं  कृषि को बहुत प्रभवित करती है। बारिश की अनिमियता या असामान्‍य व्‍यवहार का कारण जलवायु मे परिवर्तन है।

इसके लि‍ए पेड़ो का कम होना, औधौगीकरण, शहरीकरण, ग्रीनहाउस गैस उत्‍सर्जन, त्रुटिपूर्ण कृषि क्रियाएँ , बंजर भूमि का बढ़ना इत्यादि माना जा रहा है।

ग्रीन हाऊस गैस जैसे की कार्बनडाइओक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, मीथेन, क्लोरोफ़्लोरोकार्बोन इत्यादि वायुमंडल मे मोटी परत बना लेते है जिससे किरणों के धरातल पे टकराने के बाद जो दीर्घ तरंग किरणों वायुमंडल मे वापस जाती है इस मोटी परत इसमे बाधा डालती है जिससे वातावरण गरम होता है।

ग्रीन हाऊस गैस के उत्षर्जन मे हालांकि कृषि क्षेत्र का 28 प्रतिशत योगदान है।इसमे सबसे ज्यादा मीथेन गैस का उत्षर्जन धान की खेती तथा मवेशियो के पालन से होता है। लेकिन ग्रीन हाऊस गैस के उत्षर्जन को, क्लाइमेट स्मार्ट कृषि क्रियाएँ को अपनाकर, कम किया जा सकता है।

क्लाइमेट स्मार्ट कृषि क्रियाएँ क्या है ?

ऐसी कृषि क्रियाएँ जो जलवायु के अनियमितताओ के विपरीत उत्पादन क्षमता को अनुरक्षण करने मे सक्षमहो। इसके तीन मुख्य पहलू है

  1. ऐसी क्रियाएँ जो कृषि की उत्पादकता को स्थिर रखने मे सक्षम हो।
  2. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के प्रति प्रतिरोधकक्षमता हो।
  3. जो कृषि क्रियाए ग्रीन हाउस गैस के उत्षर्जन को कम करे।

क्लाइमेट स्मार्ट कृषि क्रियाएँ के विभिन्न घटक को चित्र 1 मे दिखाया गया है। इन सभी को या जो सम्भव हो सके एनपे कृषि उत्पादन मे अपनाकर हमलोग बदलते जलवायु के तनाव मे भी कृषि उत्पादन को बरकरार रख सकते हुये वातवारण को सुरक्षित रख सकते है।

 क्लाइमेट स्मार्ट कृषि का प्रतिरूप

चित्र1 : क्लाइमेट स्मार्ट कृषि का प्रतिरूप

पटसन की खेती पूर्वी भारत का एक नकद फसल के रूप मे की जाती है। इससे कम से कम 1.0 करोड़ लोगो का जीबन यापन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से होता है।पटसन की खेती एक वर्षा आधारित खेती मनी जाती है इसकी बुआई मानसून से पहली बारिश मार्च से अप्रैल मे कर दी जाती है। लेकिन बारिश अनिमिताऐ के कारण इसकी बुआई मे बुरा असर पड़ता है, अगर ज्यादा वर्षा हो, ओलावृष्टि हो तो फसल बर्बाद हो जाती है

फसल के तैयार होने के समय कम बारिश से रेशे के  सड़न के लिए कम जल मिल पता है जिससे इसका उत्पादन कम हो जाता है। अगर इस समय ज्यादा बारिश हो जाये तो जड़े निकाल आती है जिससे रेशे के गुणवत्ता कम हो जाती है। अतः जलवायु को दुष्परिणाम रोकने के लिए हमे पटसन उत्पादन के क्लाइमेट स्मार्ट कृषि क्रियाएँ को अपनाने की जरूरत है, जो निम्नलिखित हैं

 ओलावृष्टि (13 अप्रैल 2015) से बैरकपुर मे बर्बाद पटसन का फसलपरिपक्व अवस्था मे कम बारि‍श पटसन फसल बर्बाद

ओलावृष्टि (13 अप्रैल 2015) से बैरकपुर मे बर्बाद पटसन का फसल      परिपक्व अवस्था मे पटसन के फसल इससे रेशे की गुणवत्ता कम होती है

1॰ सम्मुन्न्त सस्य क्रियाएँ:

पटसन के बुआई का समय हालांकि बारिश पर निर्भर करता है लेकिन बदते मौसम के अनुसार इसकी बुआई मे फेर बदल कर इसके उत्पादन को स्थायी बनया जा सकता है। पटसन की बुआई अप्रैल के तीसरे या चौथे सप्ताह जब बारिश होने की समभाबना ज्यादा होती है करनी चाहिए। शुष्क सहनशील किस्मे जैसे की जे.आर.ओ. 524, जे.आर.ओ. 204, जे.आर.ओ. 7835, जे.आर.ओ. 878, एस.19, जे.आर.सी.321 इत्यादि, की बुआई करनी चाहिए।

पटसन की बुआई 15 से॰ मी॰ कुंड मे करने से कम बारिश व सिंचाई से पटसन को शुष्कता के तनाव से बचाया जा सकता है इसमे बीज के अच्छी अंकुरण भी होती है साथ साथ भूमि की सतही तापमान भी कम होता है।

कुंड मे पटसन की बुआई

कुंड मे पटसन की बुआई

2॰ समन्वित पोषण प्रवंधन:

उर्वरको के अधिक प्रयोग से हमारी मिट्टी की गुणवत्ता कम होती है तथा वायुमंडल पर भी इसका बुरा असर होता है। उर्वरको पर निर्भरता को कम करके किसान भाई इसके उत्पादन के समय होने वाले ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम कर सकते है तथा इसका मिट्टी मे उचित उपयोग करके मिट्टी से निकले वाले नाइट्रोजेन गैस के उत्सर्जन को भी कम कर सकते है।

हरित खाद, गोबर की खाद, कम्पोस्ट, फसल के अवशेष के साथ रसायनिक उर्वरक का प्रयोग से फसल के उत्पादन के साथ मिट्टी के गुणवत्ता भी बरकरार रहता है।मिट्टी परीक्षण के बाद उर्वरक का उपयोग से सटीक मात्रा मे पोषण तत्वो का उपयोग होता है जिसेसे उर्वरक के क्षति नहीं होती है।

नाइट्रोजेन, फॉस्फेट, पोटाश किए दर क्रमश: 60:30:30 किलो/हे॰ के साथ सल्फर @30 किलो/हे॰ के उपयोग से पौधो मे जल तनाव सहने की क्षमता मे वृद्धि होती हैके साथ रेशा उपज मे भी वृद्धि होती है। उर्वरक छीड़काव के वजाय कतार मे डालने से अधिक उपज की प्राप्ति होती है।

3. मृदा एवं जल प्रवंधन:

प्रारम्भिक फसल अवस्था मे पटसन शुष्कता एवं जल जमाव के प्रति बहुत ही संवेदनशील होता है। इसलिए खेतो को अच्छी तरह समतल बना लेना चाहिए तथा जल निकास के समुचित व्यवस्था करनीचाहिए। अगर संभव हो सके तो लेजर लेवेलर का उपयोगकर जमीन को समतल बनाया जा सकता है, इससे फसल की जल उपयोग क्षमता के साथ साथ पोषण तत्तो के उपयोग क्षमता भी बढ़ती है।

कुंड मे बुआई से पटसन के सिंचाई के लिए जरूरत जल से 30 प्रतिशत तक जल कम लगता है तथा इससे पौधो पर अग्रिम शीतोष्ण का प्रभाव भी कम होता है। पटसन के समतल भूमि पे बुआई के बाद एक सिंचाई देने के 4-5 दिनो के बाद नेल वीडर का उपयोग कर मिट्टी का पलवार बनाने से मिट्टी से वाष्पीकरण कम होता है और फसल की वृद्धि भी अच्छी होती है।

अगर फसल के समय ज्यादा बारिश हो जाये तो 24 घंटो के अंदर निकाष के व्यवस्था करनी चाहिए।जल जमाब के कारण फसल पे बुरा असर के साथ साथ मेथेन तथा नाइट्रोजेन गॅस का उत्षर्जन होता है जो हमारे वातावरण के लिए हानीकरक है।

नेल वीडर से तैयार मिट्टी का पलवार नेल वीडर का उपयोग नहीं किया गया

फोटो 4.0: (अ) नेल वीडर से तैयार मिट्टी का पलवार (ब) नेल वीडर का उपयोग नहीं किया गया

4. समन्वित कीट एवं रोग प्रवंधन:

आजकल कीटनाशक, रोगनाशक एवं खरपतवार नाशक रसायनो का उपयोग बहुत ज्यादा हो रहा है क्योकि ये नाशी जीवो के रोकथाम का सबसे आसान तरीका माना जाता है। लेकिन इसके अव्यवस्थित उपयोग से हमारे वातावरण के साथ हमारे स्वाथ्य पर भी पड़ता है। इसलिए हमे कीटनाशी का कम से कम उपयोग करना चाहिए जिसके लिए समन्वित कीट एवं रोग प्रवंधन को अपनाना चाहिए जैसे की पारंपरिक विधि, यांत्रिक एवं कार्बनिक रसायनो के उपयोग पे बल देना चाहिए।

पटसन मे गलन रोग, पीली मकड़ी, बिहार रोयेदार सूँडी के रोकथाम के लिए पौधो के कतार मे बुआई (5 लाख पौधा/ हे.), सात दिन पहले मिट्टी मे ब्लीचिंग पाउडर @ 30 कि. ग्रा॰/ हे॰ का उपयोग, बीज का उपचार कार्बेण्डाजिम 2 ग्रा॰/ किलो बीज + इमिडाक्लोरोपिड @4.0 ग्रा॰/किलो बीज से करके बुआई करे, अगर फिर भी रोग एवं कीड़ो का दमन नहीं हुआ तब स्पीरोमेसिफेन@1मि॰ली॰/ ली॰ पानी के साथ तथा प्रोफेनोफोस 2 मि॰ली॰/ ली॰ पानी के साथ छिड़काव करे।

5. समन्वित खरपतवार नियंत्रण:

अगर खेतो मे सँकरी पत्तों वाली खरपतवार ज्यादा है तो बूटाक्लोर 50 ईसी @1.0-1.5 किलो सक्रिय घटक फसल अंकुरण से पहले (बुवाई के 24-48 घंटो के भीतर) छीरकाब करे

उसके बाद 5-7 दिन अंकुरण पश्चात यांत्रिक विधि (नेल वीडर) के उपयोग से खरपतवार का सफल रूप से नियंत्रण हो जाता है अथवा क्विजलोफोप एथायल @1.0 मि॰ली॰/ ली॰ पानी 10-15 दिनो अंकुरण पश्चात छीरकाब करे।जिस खेतो मे चौड़ी पत्तों वाली खरपतवार ज्यादा है तो प्रिटीलाक्लोर 50 ईसी @1.0 किलो सक्रिय घटक फसल अंकुरण से पहले (बुवाई के 24-48 घंटो के भीतर)का उपयोग कर सकते है।

जिस पटसन के खेतो मे मोथा का संक्रमण ज्यादा है उसमे बुआई के 15-20 दिन पहले जमीन तैयार कर हल्की सिंचाई कर मोथा को उगने दे (इसे स्टेल सीड बेड कहते है) जब मोथा 15-20 दिनो का हो जाये तो ग्लायफोसेट @1.25 किलो सक्रिय घटक/हे॰ का छिड़काव कर दे और सम्भव हो तो उसी दिन बीज की बुआई कर दे। इससे 7-10 दिनो मे मोथा नष्ट हो जाता है बीज के अंकुरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस प्रक्रिया को तीन साल तक करने से मोथा का उन्नमुलन हो जाता है।

6. जलवायु प्रतिरोधक समर्थ पटसन आधारित फसल पद्धति:

आजकल के वातावरण जलवायु परिवर्तन के कृषि पर दुष्प्रभाव को कम करने के लिए हमे ऐसी फसल पद्धति के बारे मे सोचने कि जरूरत है जलवायु के अनिश्चिताओ मे भी स्थायी रूप से उत्पादन को बनाए रखे साथ साथ मृदा गुणवत्ता को बनाए रखे। ऐसा अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि शहर के पास वाले गाँव मे पटसन-धान-बेबी मक्का के फसल चक्र जिसमे सारे फसलों मे संतुत उर्वक कि मात्रा के साथ मक्का का अवशेष@4 टन/ हे॰ मिट्टी मे डालने से ज्यादा उत्पादन के साथ ज्यादा लाभ मिला और मृदा गुणवत्ता मे वृद्धि दर्ज की गयी।इसके बाद पटसन-धान-मटर की खेती से प्राप्त हुआ।

लाल चौलाई और पटसन की मिश्रित खेतीमिश्रित खेती:

एक फसल के साथ दूसरे कम अबाधि वाले फसल को उगाना मिश्रित खेती कहलाता है। इससे मिट्टी के पोषण तत्त्वो, जल, जगह का बेहतर उपयोग हो पाता है और खरपतवार भी नियंत्रित होता है। 

पटसन के साथ लाल चौलाई का साग कि खेती से 21-40 दिनो मे 40-64 क़/हे साग की उपज प्राप्त हुई तथा 35-37 क्विटल रेशे कि भी प्राप्ति हुई। इस पद्धति से वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण भी होता है तथा खाली मिट्टी से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी कम हो जाता है।

मूँग और पटसन के अंतःफसलीयपद्धतिअंतः फसलीय पद्धति:

जब दो फसल साथ साथ एक निश्चितबन्ध कतार मे बोई जाती उसे अंतःफसलीय पद्धति कहते है।

पटसन (जेआर ओ 204) के कतार बुआई (40 से॰ मी॰ ) के साथ कतार के बीच मे मूंग के किस्मों टी एम बी 37 या पीएम 5 के बुआई 15-18 मार्च मे करने से रेशे के उपज 28-30 क्विटल/हे॰ तथा मूंग के उपज 7-10 क्विटल/हे॰ की प्राप्ति हुयी ।इसके अलावा इससे 2 टन मूँग का अवशेष मिला जो 10 टन गोबर की खाद के बराबर है।

 

पटसन फसल की कटाई

कटाई:

पटसन के फसल को 110-120 दिनो मे काट लेनी चाहिए समय से पहले काटने से कम एवं कमजोर रेशे कि प्राप्ति होती है तथा देरी से कटाई से रेशे की गुणवत्ता मे कमी आती है और इसके सड़न मे समय भी ज्यादा लगता है।

इसलिए समय पर पाटसन की कटाई करनी चाहिए । जिससे मिथेन गॅस का उत्षर्जन ज्यादा होता है। शोध से ज्ञात हुआ है कि सड़न विधि से मिथेन गॅस का उत्षर्जन 5.79-46.46 मि॰ग्रा॰/ वर्गमी॰/ घंटे होता है।

उन्नत सड़न तकनीक:

पारंपरिक विधि से पटसन के सड़न मे 21-30 दिनो का समय लागत है और इससे मिथेन गॅस का उत्षर्जन ज्यादा होता है और रेशे का रंग भी श्यामला हो जाता है। शोध से ज्ञात हुआ है कि सड़न विधि से मिथेन गॅस का उत्षर्जन 5.79-46.46 मि॰ग्रा॰/ वर्गमी॰/ घंटे होता है। 

क्रिजेफ सोना नाम के सड़न पाउडर के उपयोग से सड़न के समय मे 6-7 दिनो की कमी आती है साथ साथ रेशे की गुणवत्ता मे भी बढ़ोतरी होती है।

सड़न की प्रक्रिया मे कमी के कारण मिथेन गॅस का उत्षर्जन भी कम हो जाता है।

कम पानी मे पटसन की सड़न विधि:

पटसन का सड़न छोटे कुंड  जिसका क्षेत्रफल 71-80 वर्ग मी॰ हो जिसकी गहराई 0.75 मी॰, 6.5मी॰ सतही व्यास, 7.5 मी॰ ऊपरीव्यास हो खेतो के निचले हिस्से मे खोदकर  को टरपौलिन शीट से कवर कर दिया जाता है।

बारिश मे पानी इसमे इकट्ठा हो जाने पर 1/3 वां एकड़ का पटसन को क्रिजेफ सोना मिलाकरा इसमे सड़ाया जा सकता है इससे अच्छी रेशे की प्राप्ति होती है।

इस कुंड को बोरो धान, सब्जी जैसे की अग्रिम गोभी,बाद मे ब्र्रोकली बेंगन लगाकर जमीन को उपयोग मे लाया जा सकता है। या मछ्ली पालन मे भी उपयोग किया जा सकता है।

iछोटे कुंड मे पटसन का सड़न उच्च गुणवत्ता वाला पटसन रेशा

छोटे कुंड मे पटसन का सड़न                 उच्च गुणवत्ता वाला पटसन रेशा

सारांश:

जलवायु परिवर्तन पटसन फसल के उत्पादन पर बुआई से लेकर सड़न तक प्रभाव डालता है।उन्नत फसल उत्पादन तकनीक तथा जागरूक होकर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को रोका जा सकता है।शुष्क प्रतिरोधी किस्मेंको अपनाकर, कुंडमे बुआई करके, पोषण तत्वो का सही से उपयोग करके, जल का सदुपयोग, एवेम परवंदहन करके,समन्वित कीट एवं रोग प्रवंधन, समन्वित खरपतवार नियंत्रण का प्रयोग करके, तथा ऐसी फसल चक्र को अपनाकर जो हमारी आय के साथ मृदा की गुणवत्ता को भी बनाए रकता होजलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम कर सकते है। इससे वातावरण भी संरक्षित रहेगा, ग्रीन हाउस गैस का उत्षर्जन कम होगा एवं जलवायु परिवर्तन को कम करने मे मदद मिलेगी।


Authors

मुकेश कुमार1, अशेष कुमार घोरई2, सब्यसाची मित्रा3 एवं दिलीप कुमार कुंडु4

1.वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान), 2. एवं 3. प्रधान वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान), 4॰ प्रधान वैज्ञानिक (मृदा विज्ञान)

केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, कोलकाता पश्चिम बंगाल 700120

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