अमरूद की अति सघन बागवानी

अमरूद भारत का एक लोकप्रिय फल है। इसका उत्पत्ति स्थान पेरू (दक्षिण अमेरिका) है। क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से देश में उगाये जाने वाले फलों में अमरूद का चौथा स्थान है। यह “विटामिन सी” का मुख्य स्त्रोत है। अमरूद पोषक तत्वों का एक बहुत अच्छा और सस्ता स्रोत है।

इसका उपयोग ताजा खाने के अतिरिक्त इससे जैम, जेली, नेक्टर, चीज और टॉफी इत्यादि बनाया जाता है। अपनी बहुउपयोगिता एवं अपने उत्तम पौष्टिक गुणों के कारण अमरूद आज सेब से भी अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।

 अमरूद में पाये जाने वाले मुख्य पोषक तत्व -

मुख्य तत्व

मात्रा प्रति 100 ग्राम फल

पानी

प्रोटीन

वसा

खनिज पदार्थ

विटामिन-सी

कार्बोहाइडे्टस

कैल्सियम

फास्फोरस

रेशा

76.1 प्रतिशत

  1.5  प्रतिशत

  0.2  प्रतिशत

  7.8  प्रतिशत

  0.25 ग्राम

14.6 प्रतिशत

  0.01 प्रतिशत

  0.44 प्रतिशत

  6.9  प्रतिशत

अन्य फल वृक्षों की तरह अमरूद में भी सघन बागवानी की अच्छी संभावनाएँ हैं। अमरूद की सघन बागवानी (हाई डैनिसिटी आर्चडिंग / एच.डी.पी.) उच्च उत्पादकता के साथ उच्च गुणवत्तायुक्त अमरूद उत्पादन की पद्धति है। जिसमें अमरूद की परम्परागत दूरी से कम दूरी पर पौधे लगाये जाते हैं।

आम तौर पर देखें तो अमरूद के सामान्य बागवानी में पौधो को अधिक दूरी पर लगाये जाते हैं। जबकि अति सघन बागवानी में परम्परागत दूरी 6 से 8 मी के मुकाबले कम दूरी पर पौधे लगाये जाते है, जिससे प्रति इकाई क्षेत्र में अधिक पौधे आते हैं।

इस प्रकार इस पद्धति से प्राप्त उपज परम्परागत पद्धति से प्राप्त उपज के मुकाबले बहुत अधिक होता हैं। आज हमारे देश के भिन्न-भिन्न भागों में बड़ी संख्या में अमरूद की इस पद्धति को अपनाकर लाभ कमा रहे हैं। इसके उत्पादन में कम लागत लगती है, लेकिन पैदावर काफी अच्छी होती है।

अमरूद उगाने के लि‍ए भूमि

अमरूद को लगभग हर प्रकार की असिंचित एंव सिंचित भूमियों में उगाया जा सकता है। ऊसर तथा रेतीली भूमियों के लिए बहुत अच्छा फल वृक्ष है परन्तु गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए उपजाऊ बलुई-दोमट भूमि अच्छी रहती है। इसके उत्पादन हेतु 6 से 7.5 पी.एच. मान की मृदा उपयुक्त होती है किन्तु 7.5 से अधिक पी.एच. मान की मृदा में उकठा रोग के प्रकोप की संभावना होती है।

अमरूद की खेती के लि‍ए जलवायु

अमरूद को उष्ण तथा उपोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है परन्तु अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, अमरूद की खेती के लिये उपयुक्त नहीं होते हैं। अमरूद की खेती के लिये 15 डिग्री से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान अनुकूल होता है।

यह सूखे को भी भली-भाँति सहन कर लेता है। तापमान के अधिक उतार चढ़ाव, गर्म हवा, कम वर्षा, जलक्रान्ति का फलोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव कम पड़ता है।

अमरूद की मुख्य किस्में

इलाहाबाद सफेदा -

फल का आकार मध्यम, गोलाकार एंव औसत वजन लगभग 180 ग्राम होता है। फल की सतह चिकनी, छिल्का पीला, गूदा मुलायम, रंग सफेद, सुविकसित और स्वाद मीठा होता है। इस किस्म की भंडारण क्षमता अच्छी होती है।

लखनऊ-49 (सरदार अमरूद) -

फल मध्यम से बडे, गोल, अंडाकार, खुरदुरी सतह वाले एवं पीले रंग के होते हैं। गूदा मूलायम, सफेद तथा स्वाद खटास लिये हुये मीठा होता है। इसकी भंडारण क्षमता अन्य प्रजातियों की तुलना में अच्छी होती है तथा इसमें उकठा रोग का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है।

चित्तीदार - फलों की सतह पर लाल रंग के धब्बे पाये जाते हैं। फल मध्यम, अंडाकार, चिकने एवं हल्के पीले रंग के होते हैं। गूदा मुलायम, सफेद, सुवास युक्त मीठा होता है।

एप्पल-कलर -

फल गोल एवं चिकने होते हैं। छिल्का गुलाबी या हरे लाल रंग का होता है। फलों का गूदा मुलायम, सफेद एवं सुवास युक्त होता है। फलों की भंडारण क्षमता मध्यम होती है।

अर्का मृदुला - फल चिकने, मध्यम आकार, मुलायम बीज, गूदा सफेद एवं मीठा होता है। इस किस्म में प्रचुर मात्रा में विटामिन-सी पाई जाती है। फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है।

ललित -

फल मध्यम आकार एवं केशरनुमा आकर्षक पीले रंग के होते हैं। गूदा गुलाबी रंग का होता है। जिसके कारण यह किस्म संरक्षित पदार्थों को बनाने हेतु उपयुक्त होती है। यह किस्म इलाहाबाद सफेदा की अपेक्षा लगभग 24 प्रतिशत तक अधिक उत्पादन देती है। फल का वजन 250 से 300 ग्राम तक होता है।

अर्का अमूल्या-

फल मध्यम आकार (180-200 ग्राम), सफेद रंग, गूदा मीठा, मुलायम एवं बीज छोटे होते हैं। फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है।

अमरूद का प्रसारण तथा प्रवर्धन

अमरूद का प्रसार व्यवसायिक स्तर पर वानस्पतिक विधियों द्वारा किया जा सकता है अतः अमरूद का बाग लगाने के लिये वानस्पतिक विधियों द्वारा तैयार पौधों का ही उपयोग करें। इसके व्यावसायिक प्रसार के लिये पेंच कलिकायन एवं उपरोपण विधि का उपयोग किया जाना उत्तम पाया गया है ।

अमरूद का रोपण का समय

पौधरोपण के लिए जुलाई से सितम्बर का महिना सबसे उत्तम माना जाता हैं। सिंचाई की उचित व्यवस्था की स्थिति में फरवरी-मार्च में भी पौधरोपण कर सकते हैं। 

अमरूद बाग का विन्यास एवं रोपण दूरी

अमरूद में सामान्यतः पेड़ से पेड की दूरी 6 से 8 मी. तक रखी जाती है। प्रयोगों द्वारा देखा गया है कि यदि अमरूद के पौधों को वर्गाकार विधि में 2 मी. × 1 मी. की दूरी पर लगाया जाये तथा कांट-छांट द्वारा पौधों को छोटा रखा जाये तो वर्षों तक अच्छा उत्पादन मिलता है।

अमरूद के पौधे लगाना

गडढ़े खोदने से पहले खेत की दो गहरी जुताई (आर-पार) अवश्य करनी चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार हैरो चलाकर खेत की लेवलिंग करनी चाहिए। मई-जून माह में मानसून से पहले खेत में 2 मी. × 1 मी. की दूरी पर 60 × 60 × 60 सेमी आकार के गडढ़े बना लें।

गडढ़े बनाने के 15-20 दिन बाद प्रत्येक गड़ढ़े की मिट्टी में 20-25 किलोग्राम खूब सड़ी गोबर की खाद, 50-100 ग्राम एन.पी.के. तथा 50 ग्राम कारटैप हाइड्रो क्लोराइड मिलाकर भरना चाहिए। गड्ढ़ा इतना भरें कि वह भूमि तल से 20-25 सेमी ऊंचा हो जाये।

गडढ़ा भरने के बाद एक-दो बरसात होने के बाद गड़ढ़े के बीचो-बीच छेद बनाकर पौधे लगाये जायें। पौधे शाम के समय या बरसात के दिन लगाये जाये तो ज्यादा अच्छा रहता है।

केनॉपी प्रबन्धन (सधाई)

इसकी केनॉपी (आकार / ढांचा) का प्रबन्धन नियमित कटाई-छटांई द्वारा किया जाता है, इसमें पौधरोपण के दो महीने के बाद (अक्टूबर) में मुख्य पौधे को सबसे पहले 70 सेंटीमीटर की ऊंचाई से काट दें, जिससे की काटे गये स्थान से नयी शाखायें निकलें । उसके बाद दो-तीन माह में पौध से चार-छह सशक्त डालियां विकसित होती हैं।

इनमें से चारों दिशाओं में चार डालियों को सुरक्षित कर बाकी को काट देते हैं, ताकि पौधे का संतुलन बना रहे। दिसम्बर-जनवरी में प्रत्येक शाखा के 50 प्रतिशत ऊपरी भाग की कटाई (हैंडिंग बैक) कर दी जाती है जिससे की और शाखायें निकले।

मई तक वृक्ष फैलाव की स्थिति प्राप्त कर लेता है। मात्र छह माह में ही अमरूद फल देने लगता है। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक प्रारंभिक अवस्था में हर पेड़ में तीन-चार फल ही रखें, बाकी फलों को छोटी अवस्था में तोड़ दें। इससे नन्हें पौधों पर ज्यादा बोझ नहीं आएगा।

अमरूद के लिए खाद एवं उर्वरक

किये गये परीक्षणों के आधार पर निम्न तालिका के आधार पर पौधों को खाद एवं उर्वरक दिये जाने चाहिए। अमरूद के लिए प्रति पेड़ प्रति वर्ष खाद एवं उर्वरकों की मात्रा-

पौधों की आयु   (वर्ष में)

गोबर की खाद (किग्रा)

नाइट्रोजन (ग्राम)

फास्फोरस (ग्राम)

पोटाश (ग्राम)

1

2

3

4

5

6व अधिक

10

20

30

40

50

60

75

150

225

300

375

450

65

130

195

260

325

400

50

100

150

200

250

300

 अमरूद में कांट-छांट

सघन बागवानी पद्धति में कुछ कार्य करने पड़ते हैं जैसे पौधों का आकार नियंत्रित किया जाता है। पेड़ों की काट-छांटकर करके इसकी ऊँचाई भी नियंत्रित की जाती है। अमरूद में कांट-छांट इसकी पैदावार तथा फलों की गुणवत्ता को बढ़ाती है। इसमें पेड़ को बीच से खुला रखते हैं।

अमरूद में फरवरी-मार्च का महीन समान्य कांट-छांट के लिए ज्यादा उपयुक्त रहता है। वर्षा ऋतु में कांट-छांट का कार्य नहीं करना चाहिए।

 अमरूद में बहार नियन्त्रण

अमरूद में साधारणतः तीन प्रकार के बहार पाये जाते हैं, जिसमें से मृग बहार उत्कृष्ट पायी गयी है।

अमरूद में बहार-

बहार के प्रकार

फूल लगने का समय

कटाई का समय

फलों की गुणवत्ता

अम्बे बहार

फरवरी-मार्च

जुलाई-सितम्बर

फीका, पानी जैसा, स्वाद और रखने की गुणवत्ता कम

मृग बहार

जून-जुलाई

नवम्बर-जनवरी

उत्कृष्ट, अच्छा स्वाद, अधिक उपज और अच्छी कीमत

हस्त बहार

अक्टूबर

 

फरवरी-अप्रैल  बढ़िया, लेकिन उपज कम, अच्छी कीमत मिलती है।

वर्षा ऋतु की फसलें सबसे अधिक होती है जिसमें 50 प्रतिशत से अधिक फल रोगग्रस्त होकर, गलकर, फटकर, तथा कीटों के प्रकोप से खराब हो जाता है। वर्षा ऋतु की फसल को शरद ऋतु की फसल में परिवर्तित करके (बहार नियन्त्रित करके) फलों को ज्यादा गुणवत्तापूर्ण तथा स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। इससे फल खराब नहीं होते तथा अधिक कीमत पर बिकते हैं।

अमरूद में बहार नियन्त्रण की विधियां इस प्रकार है-

1.फल-फूलों को हाथ से तोड़ना

अप्रैल-मई में जब 50 प्रतिशत फूल खिल चुके हो तो पेड़ के समस्त फूलों एवं फलों को हाथ से तोड़ दे। 15 दिन बाद यह कार्य दोबारा करते हैं। इस विधि में श्रम अधिक लगता है।

2.यूरिया के छिड़काव द्वारा

इसमें यूरिया के 10-15 प्रतिशत घोल के दो छिड़काव (15 दिन के अन्तर से अप्रैल-मई माह में करने से वर्षा ऋतु की फसल कम हो जाती है और जाड़े की बढ़ जाती है। तराई के क्षेत्रों में यह विधि सफल नहीं है।

3.नैफ्थलीन एसीटिक अम्ल (एन.ए.ए.) द्वारा

अप्रैल-मई माह में जबकि 50 प्रतिशत फूल खिल चुके हो, एन.ए.ए. (600-800 पीपीएम) के घोल के दो छिड़काव (15 दिन के अन्तर पर) करने से वर्षा ऋतु की फसल काफी कम हो जाती है।

4.पत्ती कृन्तन द्वारा

इसमें अप्रैल के अन्तिम सप्ताह से मई के दूसरे सप्ताह के बीच पेड़ की समस्त नयी शाखाओं के अग्रभाग को सिकेटियर से इस प्रकार काटते हैं कि उसमें एक जोड़ा पत्ती छूटी रहे जिससे वर्षा ऋतु की फसल रूक जात तथा जाड़ों की अच्छी फसल मिल जाती है। बहार नियन्त्रण की कोई एक उपयुक्त विधि अपनाकर अमरूद के बागवान अधिक लाभ कमा सकते हैं।

कीड़े-बीमारी से बचाव

अमरुद की फसल को कई रोग हानि पहुंचाते है जिनमे म्लानी रोग, तना कैकर, एनेथ्रकनोज, स्कैब, फल विगलन, फल चिती तथा पोध अंगमारी प्रमुख है। अमरुद में लगने वाले विभिन्न कीड़ो में तना बेधक कीट, अमरुद की छाल भक्छी इल्ली, स्केल कीट तथा फल मक्खी आदि प्रमुख है। अतः सभी की रोकथाम आवश्यक है।

  • अमरुद में बरसात की फसल में फल मक्खी भी बहुत नुकसान पहुंचाती है। इसकी रोकथाम के लिए सबसे पहले मक्खी से सदुषित फलो को एक जगह करके नष्ट करें। पेड़ो के बेसिन की जुताई करे तथा मिथाइल उजिनोल के 8-10 ट्रैप को (100 मी. ली घोल में 1 प्रतिशत मिथाइल उजिनोल तथा 0.1 प्रतिशत मैलाथियान ) प्रति हेक्टयर पर पेड़ो की डालियों पर 5-6 फीट ऊंचे लटका दें। यह बहुत ही प्रभावी तकनीक है। साथ ही इस घोल को प्रति सप्ताह बदलते रहना चाहिए।
  • अमरूद के छाल खाने वाले कीट के नियंत्रण के लिए कारटैप हाइड्रो क्लोराइड 200 से 300 ग्राम दवा प्रति 200 लीटर पानी का घोल बनाकर पेड के तनों पर छिड़काव करें। इस प्रक्रिया को 10 से 15 दिन के अंतराल पर दोहरायें तथा मैलाथियान 500 मिली. दवा 200 लीटर पानी में घोल बना कर वृक्षों पर छिड़काव करें।
  • ऐंथ्रैक्नोज रोग के नियंत्रण के लिए 1 ग्राम कार्बेन्डाजीम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

विल्ट मुरझान से प्रभावित अमरूद की पत्तियॉं पीली होने लगती है। साथ ही किनारे वाली पत्तियॉं अन्दर की तरफ से मुड़ने लगती है। अंत में यह लाल होकर झड़ने लगती है। प्रभावित टहनियों में कोई भी पत्ती दिखाई नयी देती और यह सूखने लगती है।

ऐसी टहनियों पर लगे फल अविकसित रह जाते है और काले रंग के होने लगते है साथ ही कठोर भी हो जातें है और पूरी तरह इस प्रक्रिया में सोलह दिन लग जाते है। इस तरह अंत में पौधा मर जाता है।

विल्ट नियंत्रण-

  • बाग की अच्छी स्वछता से भी रोग की रोकथाम की जा सकती हैं।
  • सूखे पेड़ो को जड़ सहित उखाड़ देना चाहिए एवं जला कर गाड़ देना चाहिए।
  • पौध रोपण के समय यह ध्यान देना चाहिए की जड़ो को नुकसान न पहुंचें।
  • गड्डों को फोर्मलिन से उपचार करना चाहिए और तीन दिन के लिए ढक देना चाहिए। पौध रोपण इसके दो हफ्ते बाद करना चाहिए।
  • चूँकि यह मिटटी जनित रोग है, इसलिए भूमि में ब्रसिकोल एवं बाविस्टीन (1 प्रतिशत) जड़ो और पत्तियों के चारो ओर पन्द्रह दिन के अन्तराल पर डालना चाहिए।
  • कर्बिनिक खाद, खली, चुना आदि भी रोग को रोकने में सहायक होते है।

उपज

यद्यपि तीन वर्ष के अमरूद के वृक्षों से सामान्यतः 75-100 फल प्रति वृक्ष मिलना शुरु हो जाता है तथा छ: वर्ष अमरूद के पूर्ण विकसित वृक्ष से वर्ष भर में 100-125 किलोग्राम प्रति वृक्ष तक उपज मिल जाती है।

शरद ऋतु में अमरूद के फलों को अखबार के कागज में लपेटकर गत्ते या लकड़ी की पेटी में भरकर दूर के बाजारों में भेजकर अधिक लाभ कमाया जा सकता है।

अमरूद की खेती का आर्थिक दृष्टिकोण -

अमरूद की खेती कम लागत और न्यूनतम रख रखाव में बहुत ज्यादा मुनाफा देना वाला फसल है। लोकल बाजार में अमरूद का मूल्य 50-60 रुपए किलो के हिसाब से बिकती हैं और थोक मंडी में 30-40 रुपए किलो के हिसाब से बिकती हैं।

अमरूद की पैदावार प्रति हेक्टेयर 20 से 22 टन/100-125 किलोग्राम प्रति पेड़ तक हो सकती है। यदि 30000 रू./टन भी कीमत आंकी जावें तो फल बेचकर किसानों को प्रति हेक्टर 6,00,000 रू. का कूल अर्जन तथा लागत काट कर 1,20,000.00 रू. का शुद्ध लाभ प्राप्त होगा।


Authors:

संगीता चंद्राकर, प्रभाकर सिंह, हेमन्त पाणिग्रही और सरिता पैकरा

फल विज्ञान विभाग,

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर,(छ.ग.)

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