तुलसी की वैज्ञानिक खेती और उसका महत्व 

तुलसी का बैज्ञानिक नाम ओसिमुम तेनुइफ़्लोरुम (ऑसीमम सैक्टम) है| तुलसी लेमिएसी कुल का पौधा है|एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय पौधा है। यह झाड़ी के रूप में उगता है और 1-3 फुट ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ बैंगनीएबम हरी आभा वाली हल्के रोएँ से ढकी होती हैं।

पत्तियाँ 1-2 इंच लम्बी सुगंधित और अंडाकार या आयताकार होती हैं। पुष्प मंजरी अति कोमल एवं 5-7  इंच लम्बी और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं।

नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है। शर्दियो में इसके पत्ते सामान्य तोर पर झर जाते है, इसके बाद इसकी वृद्धावस्था आ जाती है। पत्ते कम और छोटे हो जाते हैं और शाखाएँ सूखी दिखाई देती हैं। इस समय उसे हटाकर नया पौधा लगाने की आवश्यकता प्रतीत होती है।

भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों में तुलसी फसल की मुख्यतः खेती की जाती है।

तुलसी के धार्मिक एबम औषधीय महत्व

तुलसी एक दैवीय और पवित्र पौधा माना जाता है, तुलसी का उपयोग भारत मे व्यापक रूप से पूजा में किया जाता है। भारतीय संस्कृति में तुलसी के पौधे का धार्मिक एवं औषधीय महत्व है। इसके उपयोग से त्वचा और बालों में सुधार होता हैं। यह रक्त शर्करा के स्तर को भी कम करती है और इसका चू्र्ण मुँह के छालों के लिए प्रयोग किया जाता है।

इसकी पत्तियों के रस को बुखार, ब्रोकाइटिस, खांसी, पाचन संबंधी शिकायतों में देने से राहत मिलती है। कान के दर्द में भी तुलसी के तेल का उपयोग किया जाता है। यह मलेरिया और डेंगू बुखार को रोकने के लिए एक निरोधक के रूप में काम करता है। लोशन, शैम्पू, साबुन और इत्र में कास्मेटिक उघोग में तुलसी तेल का उपयोग किया जाता है।

कुछ त्वचा के मलहम और मुँहासे के उपचार में भी इसका प्रयोग किया है। मधुमेह, मोटापा और तंत्रिका विकार के इलाज में इसका उपयोग किया जाता है। यह पेट में ऐंठन, गुर्दे की स्थिति और रक्त परिसंचरण को बढ़ावा देने में उपयोगी होता है।

तुलसी के 5 पत्तियों का रोज सुबह खाली पेट सेवन करने से बिभिन प्रकार क रोगों से लारने कि ऊर्जा शारीर को मिलती है, यह अपने आप में एक सर्ब गुण संपन औषधि है|

तुलसी की प्रजतियां

भारत में तुलसी का पौधा धार्मिक एवं औषधीय तौर पर बहुत महत्व रखता है। इसे हिंदी में तुलसी, संस्कृत में सुलभा, ग्राम्या, बहूभंजरी एवं अंग्रेजी में होली बेसिल के नाम से जाना जाता है।

लेमिएसी कूल के इस पौधे की विश्व में 100 से ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जबकि भारत में मुख्य रूप से पाए जाने वाली प्रमुख प्रजातियाँ निम्न प्रकार हैं :

1. बेसिल तुलसी: बोबई तुलसी, कर्पूर तुलसी, काली तुलसी, वन तुलसी, जंगली तुलसी या राम तुलसी
2. होली बेसिल: श्री तुलसी या श्यामा तुलसी

केंद्रीय औषधि व सुगंध पौध संस्थान, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ने तमाम ऐसी प्रजातियां विकसित की हैं, जिन में रोगों व कीटों का प्रकोप बहुत कम होता है। सीमैप, सौम्या और विकार सुधा अच्छी प्रजातियां हैं।

तुलसी  की खेती के लि‍ए मृदा व जलवायु

इसकी खेती कम उपजाऊ जमीन जिसमें पानी की निकासी का उचित प्रबंध हो, अच्छी होती है। बलूई दोमट जमीन जिसका पी.येच मान 6-7.5 हो इसके लिए बहुत उपयुक्त होती हैं। इसके लिए उष्ण कटिबंध एवं कटिबंधीय दोनों तरह की जलवायु उपयुक्त होती है।

जमीन की तैयारी

तुलसी पौधा लगाने से पहले खेत को अच्छी तरह से जुताई कर लेना चाहिए। खेत जो कि अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह तक तैयार हो जानी चाहिए।

पहले कल्टीवेटर जैसे कृषि उपकरण से जुताई करने क बाद खाद एबम कम्पोस्ट खेत में अच्छी तरह मिला कर अंतिम जुताई रोटावेटर जैसे कृषि उपकरण से करनी चाहिए|

बुवाई व रोपाई

इसकी खेती बीज द्वारा होती है लेकिन खेती में बीज की बुवाई सीधे नहीं करनी चाहिए। पहले इसकी नर्सरी तैयार करनी चाहिए। बाद में उसकी रोपाई करनी चाहिए। कभी कभी तुलसी का पौधा प्रबर्धन तकनीक के द्वारा भी तैयार कि जा सकती है पर ये कठिन एवं अधिक लागत लगती है, इसके लिए बीज के द्वारा करना ही उचित रहता है |

तुलसी की पौध तैयार करना

जमीन की 15 – 20 सेमी. गहरी खुदाई कर के खरपतवार आदि निकाल तैयार करा लेना चाहिए। 15 टन प्रति हे. की दर से गोबर की सड़ी खाद अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। 1 मी. चौरा X अव्यसाक्तानुसार आकार की जमीन, सतह से उभरी हुई क्यारियां बना कर उचित मात्र में कंपोस्ट एवं उर्वरक मिला दिन चाहिए।

750 ग्रा. – 1 किग्रा. बीज एक हेक्टयेर के लिए पर्याप्त होता है। बीज की बुवाई 1:10 के अनुपात में रेत या बालू मिला कर 8-10 सेमी. की दूरी पर पक्तियां में करनी चाहिए। बीज की गहराई अधिक नहीं होनी चाहिए। जमाव के 15-20 दिन बाद 20 कि./हेक्टेयर की दर से नेत्रजन डालना उपयोगी होता है।

पांच- छह सप्ताह में पौध रोपाई हेतु तैयार हो जाती है। समय समय पर जरुरत क अनुसार सिचाई करना चाहिए| मुख्य खेत में लगाने से एक सप्ताह पूर्व सिचाई बंद कर देनी चाहिए|

तुलसी की रोपाई

रोपाई क लिए मध्य अप्रैल का महीना उपर्युक्त होता है, सूखे मौसम में रोपाई हमेशा दोपहर के बाद करनी चाहिए। रोपाई के बाद खेत की सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए।

बादल या हल्की वर्षा वाले दिन इसकी रोपाई के लिए बहुत उपयुक्त होते हैं। इसकी रोपाई लाइन में लाइन 60 से. मी. तथा पौधे से पौधे 30 से. मी. की दूरी पर करनी चाहिए। प्रजाति के अनुसार कम ज्यादा कि जा सकती है|

उर्वरक

इसके लिए 15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद जमीन में डालना चाहिए। इसके अलावा 75-80 किग्रा. नेत्रजन 40-40 किग्रा. फास्फोरस व पोटाश की आवश्यता होती है। रोपाई के पहले एक तिहाई नेत्रजन तथा फस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत में डालकर जमीन में मिला देने चाहिए। शेष नेत्रजन की मात्रा दो बार में खड़ी फसल में डालना चाहिए। पहली बार नेत्रजन रोपाई के 3 सप्ताह बाद एबम दूसरी 7 सप्ताह बाद करना लाभदायक होता है|

तुलसी की सिंचाई

तुलसी मे पहली सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करनी चहिए| उस के बाद मिट्टी में नमी उपलबद्धता मुताबिक सिंचाई करनी चहिए| वैसे गरमियों में हर महीने 3 बार सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है| बरसात के मौसम में यदि बरसात होती रहे, तो सिंचाई की कोई जरूरत नहीं पड़ती है|

केंद्रीय औषधि व सगंध पौध संस्थान, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के अनुसार, यह 90 दिनों में होने वाली बरसात की फसल है, जिस में रोग और कीट बहुत ही कम लगते हैं। परंतु इस में पानी 2 दिन भी नहीं ठहरना चाहिए, अगर पानी ठहरता है, तो फसल का नुकसान तय है।

खरपतवार नियंत्रण

इसकी पहली निराई-गुड़ाई रोपाई के एक माह बाद करनी चाहिए। दूसरी निराई - गुड़ाई पहली निराई के 3-4 सप्ताह बाद करनी चाहिए।

कटाई

जब पौधे में पूरी तरह से फूल आ जाए तथा नीचे के पत्ते पीले पड़ने लगे तो इसकी कटाई कर लेनी चाहिए। रोपाई के 10-12 सप्ताह के बाद यह कटाई के लिए तैयार हो जाती है। जब पौधों में पूरी तरह फूल आ जाएं तो रोपाई के 3 महीने बाद कटाई का सही समय होता है। ध्यान रहे कि तेल निकालने के लिए पौधे के 25-30 सेंटीमीटर ऊपरी शाकीय भाग की कटाई करनी चाहिए|

तलसी की पैदावार

इसके फसल की औसत पैदावार 20-25 टन प्रति हेक्टेयर तथा तेल का पैदावार 70-100 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तक होता है।

कीट एबम बीमारियाँ

तुलसी में कीट एबम बीमारियों का प्रकोप सामान्यतः नहीं पाया गया है, परन्तु अगर कभी कीट या रोग दिखाई पड़े तो जैविक कीटनाशी एबम फफूंदनाशी दवाओ का ही प्रयोग करे| ध्यान रहे कि फसल कटाई के 15 दिन पूर्व से किसी भी दावा का प्रयोग नहीं करना चाहिए|

तुलसी की खेती से आमदनी

आमदनी तेल की गुणवत्ता, मात्रा, बाजार मूल्य और किसान की समझदारी पर निर्भर होती है। विशेषज्ञयों के अनुसार पाया गया की 1 हेक्टेयर खेत से लगभग 70 से 100 किलोग्राम तेल की प्राप्ति होती है, जिस से तकरीबन 40-50 हजार रुपए हासिल किए जा सकते हैं।

सब से अच्छा होगा कि इस की खेती करने से पहले मार्केटिंग के बारे में गहराई से जानकारी इकट्ठा कर लें ताकि इसे बेचने के लिए भटकना न पड़े और उत्पाद का वाजिब मूल्य भी मिल सके।


Authors:
प्रतीक कुमार मिश्रा1, अनुप कुमार2 और पवन जीत3
1परियोजना सहायक, 2वरिष्ठ शोधकर्ता और 3वैज्ञानिक
आई. सी. ए. आर. पूर्वी क्षेत्र के लिए अनुशंधान परिसर, पटना-800, 014
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