7 Major diseases of Seasonal Flowers and their control measures

फूलो की व्यवसायिक खेती किसान बंधुओ के लिये आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होती है। यह किसानो के लिये कृषि के साथ-साथ अतिरिक्त आमदनी का एक महत्वपूर्ण जरिया भी बन सकता है। वर्तमान मे शहरीकरण विकास के साथ फूलो का व्यवसाय भी तेजी पकड़ रहा है तथा आने वाले समय मे इनकी और अधिक मांग होने की संभावना प्रबल है।

मौसमी फूलो मे लगने वाले रोगो से इनका उत्पादन, गुणवत्ता एवं बाजार भाव व मांग पर विपरीत असर पड़ सकता है। अतः फूलो मे लगने वाले विभिन्न रोगो का सही समय पर एवं उचित पौध संरंक्षण उपायो द्वारा रोकथाम करके होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। इनमे प्रमुख रूप से निम्न रोग का प्रकोप सामान्यतः देखने को मिलता है।

1. चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्डयू):-

यह रोग फफूंद द्वारा होता है। इस रोग मे सफेद रंग का पाउडर एवं चकते पत्तियो, तनो, कलियो एवं फूलो पर दिखाई देता है। रोग के प्रभाव के कारण नयी छोटी पत्तियां ऐठ जाती है, रोगग्रस्त कलियां खिलती नही है एवं प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है जिसके कारण फूलो की उपज प्रभावित होती है। मौसम मे अचानक परिवर्तन के कारण यह रोग ज्यादा लगता है।

रोकथामः- रोग के लक्षण दिखाई देने पर केराथेन 1 मि.ली. या घुलनशील गंधक 2 मि.ली./ली पानी के हिसाब से घोल बनाकर 15 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिडकाव करना चाहिये। फफंूदनाशी का प्रयोग सावधानीपूर्वक निर्धारित मात्रा, सही समय एवं उपयुक्त वातावरण मे करना चाहिये।

2. पत्ती धब्बा/काला धब्बा (लीफ स्पाट/ब्लेक स्पाट):-

यह रोग फफूंद द्वारा होता है। इस रोग मे पत्तियो, तनो एवं फूलो पर बैगनी, भूरे या काले रंग के धब्बे दिखाई देते है। जिसके कारण पौधों की बढ़वार रूक जाती है। रोगग्रसित पत्तियां पीली पड़कर समय से पहले ही गिर जाती है।

इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम निचली पत्तियो पर दिखाई देते है तथा बाद मे तने पर भी भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है जो बाद मे काले रंग के हो जाते है।

रोकथामः- सही समय पर पौधो को लगाना चाहिये। रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्काजेब या जेनेब 2 मि.ली./ली पानी के हिसाब से घोल बनाकर 15-20 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिडकाव करना चाहिये।

3. शीर्ष भाग का सूखना (डाई बैक):-

यह रोग सामान्यतः कटाई-छंटाई के बाद पौधो मे ऊपरी शीर्ष भागो से शुरू होकर नीचे की तरफ फैलता है। इसमे पौधो के रोगग्रस्त भाग काले रंग के हो जाते है एवं सूख जाते है। गुलाब मे यह रोग प्रमुख रूप से होता है। पुराने पौधो मे यह रोग नये पौधो की अपेक्षा अधिक होता है।

रोकथामः- रोगग्रस्त भागो को कांट-छांट कर अलग कर देना चाहिये। कांट-छांट के बाद चैबटिया पेस्ट (बोर्डेक्स मिश्रण 4ः4ः50) का लेप पौधो के कटे शिरो पर लगाना चाहिये। इसके अलावा कार्बेंडाजिम या मेन्कोजेब या बाविस्टिन को 2 मि.ली/ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिये।

4. पत्ती झुलसाः-

यह रोग फफूंद द्वारा होता है। इस रोग से पत्तियो पर शुरूवाती अवस्था मे छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे बनने लगते है जो रोग की उग्र अवस्था मे बड़े-बड़े चकतो के रूप मे परिवर्तित हो जाते है। रोगी पत्तियो के किनारे अंदर की ओर मुड़ जाते है जो कठोर व भंगुर हो जाते है।

रोग की अधिकता के कारण वानस्पतिक कलिकाएं और नयी शाखाएं सूख जाती है जिसके फलस्वरूप फूलो का उत्पादन कम हो जाता है।

रोकथामः- इस रोग से रोकथाम के लिये ब्लाइटाक्स-50 (0.5 प्रतिशत) या कापर आक्सी क्लोराइड (0.3 प्रतिशत) या मेन्कोजेब (0.2 प्रतिशत) या बाविस्टिन (0.1 प्रतिशत) का घोल बनाकर 15-20 दिन के अंतराल पर कम से कम 2 बार छिडकाव करना चाहिये।

5. आद्र गलनः-

यह रोग नर्सरी में पौधों की छोटी अवस्था में लगता है। इस रोग के प्रकोप से पौधे का जमीन की सतह पर स्थित तने का भाग काला पड़कर गलने लग जाता है। और नन्हें पौधे गिरकर मरने लगते है। यह रोग भूमि एवं बीज के माध्यम से फैलता है। रोग की अधिकता होने पर रोपाई के लिये पौध संख्या कम पड़ती है।

रोकथामः- बुआई से पूर्व बीजों को 3 ग्राम थाइरम या 3 ग्राम केप्टान या बाविस्टिन प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर बोयें। नर्सरी, आसपास की भूमि से 6 से 8 इंच उठी हुई भूमि में बनावें। मृदा उपचार के लिये नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाइरम या कैप्टान या बाविस्टिन का 0.2 से 0.5 प्रतिशत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है।

रोग के लक्षण प्रकट होने पर बोडों मिश्रण 5:5:50 या काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिडकाव करें।

6. सड़न/गलन रोगः-

इसमे मुख्य रूप से जड़ गलन, कंद गलन, तना सड़न एवं पुष्प कलिका सड़न आते है।

रोक थाम:- कंदो द्वारा लगाये जाने वाले पुष्पीय पौधो के कंदो को थाइरम, केप्टान या बाविस्टिन (0.3 प्रतिशत) घोल मे 15 मिनट डुबोकर लगाना चाहिये। रोग से बचने के लिये ब्रासीकाल (0.3 प्रतिशत) का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये।

मृदा उपचार के लिये नर्सरी में बुवाई से पूर्व थाइरम, कैप्टान, बाविस्टिन या कापर आक्सीक्लोराइड का 0.2 से 0.5 प्रतिशत सांद्रता का घोल मृदा मे सींचा जाता है जिसे ड्रेंचिंग कहते है। 

7. उकठा:-

इस रोग मे प्रभावित खेत की फसल हरा का हरा मुरझाकर सूख जाता है। यह रोग पौधें में किसी भी समय प्रकोप कर सकता है।

रोकथाम:- गी्रष्मकालीन गहरी जुताई करके खेतों को कुछ समय के लिये खाली छोड देना चाहिये। फसल चक्र अपनाना चाहिए। प्रभावित खडी फसल में रोग का प्रकोप कम करने के लिये गुडाई बंद कर देना चाहिए क्योंकि गुडाई करने से जडों में घाव बनतें है व रोग का प्रकोप बढता है।

रोपाई पूर्व खेतों में ब्लीचिंग पाउडर 15 कि.गा्र. प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलायें। बीजो को उपचारित करके बोना चाहिये। पौध को रोपाई करने से पहले काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर 15 मिनट डुबाने के बाद लगाना चाहिये।


Authors:

सीताराम देवांगन और घनश्याम दास साहू

 उघानिकी विभाग, इंदिरा गांधी कृषि महाविघालय रायपुर (छ.ग.).492012

 सवांदी लेखक का र्इमेल: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

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