बहुउपयोगी फसल ग्वार की खेती

ग्वार उत्तरी भारत में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलों में से एक है जिसकी खेती मुख्यतः हरी फली सब्जी-दाले, हरी खाद व चारा फसलों के लिए की जाती है। उत्तरी भारत में इसके उगाए जाने का एक मुख्य कारण यह भी है कि ग्वार अन्य फसलों की तुलना में अधिक सूखा सहनशील है इसलिए शुष्क क्षेत्रों में तो इसकी खेती हरी खाद के रूप में बड़े पैमाने पर की जाती है।

ग्वार की कुछ किस्मो का प्रयोग गोंद निकालने के लिए किया जाता है और उन्हें मुख्यता उसी के लिए उगाते हैं जिससे प्राप्त गोद का प्रयोग विभिन्न कार्यो जैसे- कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन एवं कागज की वस्तुएं बनाने के साथ-साथ विभिन्न खाद्य इंडस्ट्रीज (कारखानों) में भी किया जाता है।

ग्वार में मुख्यतः जल- 82.5 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट- 9.9 प्रतिशत, प्रोटीन- 3.7 प्रतिशत, वसा- 0.2 प्रतिशत, फाइबर- 2.3 प्रतिशत, मिनरल्स- 1.4 प्रतिशत पाया जाता है जो इसकी पोषण क्षमता को बढ़ाता है।

जलवायु एवं मृदा

यह एक गर्म जलवायु का पौधा है जो गर्मी व बरसात के मौसम में अच्छी तरह से उगाया जा सकता है। इसकी खेती मुख्यतः वर्षा आधारित क्षेत्रों एवं उत्तरी भारत के अर्धशुष्क क्षेत्रों में की जाती है। इसके लिए औसत वर्षा 30 से 40 सेंटीमीटर की आवश्यकता होती है परन्तु जलभराव की स्थिति इसकी खेती के लिए हानिकारक है।

यह एक प्रकाश प्रभावित फसल है जिसमें पुष्पन और फलन केवल खरीफ में ही देखने को मिलता है।

ग्वार की खेती लगभग हर प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है फिर भी अच्छी प्रकार सुखी बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी.एच. मान 7.0 से 8.0 तक हो सर्वोत्तम है। उचित जल निकास की भी सुविधा होना आवश्यक है।

प्रमुख किस्में

पूसा मौसमी, पूसा सदाबहार, पूसा नौबहार, शरद बहार, गोमा मंजरी, परदेसी, पी. 28-1-1 (एन.बी.पी.जी.आर. द्वारा विकसित)

खेत की तैयारी

एक अति उत्तम क्षेत्र तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से करनी चाहिए ताकि कम से कम 20-25 सेमी गहरी मिट्टी ढीली हो सके। इसका पालन एक या दो क्रॉस हैरोइंग या प्लाविंग द्वारा किया जाना चाहिए।

जुताई के बाद प्लैंकिंग करनी चाहिए ताकि मिट्टी अच्छी तरह से समतल हो जाए। अच्छी जल निकासी के लिए उचित स्तर के खेत की आवश्यकता होती है।

बुवाई की विधि एवं समय-

इसकी बुवाई के लिए जून-जुलाई एवं फरवरी-मार्च का महीना उचित रहता है। समय पर बुवाई फसल की उपज में वृद्धि करती हैं जबकी अधिक देर फसल को प्रभावित करती है।

इसकी बुवाई के लिए डिबलिंग या ड्रिलिंग विधि (हल के पीछे) का प्रयोग करते हैं । कहीं-कहीं पर इसकी बुवाई के लिए बिखराव (ब्रॉडकास्टिंग) विधि का भी प्रयोग किया जाता है।

बीज दर एवं बुवाई अंतराल-

इसके लिए बीज दर 25 से 30 किग्रा प्रति हेक्टेयर रखते हैं । बीजों को बुवाई से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करने से फसल उत्पादन में वृद्धि होती है। बीजों की बुवाई के लिए बुवाई अंतराल 45 × 15-20 सेंटीमीटर रखते हैं।

पोषण प्रबंधन-

भूमि की तैयारी करते समय मिट्टी में 25 टन गोबर की खाद मिलाते हैं। इसके लिए उर्वरक अनुपात 25˸75˸60 प्रतिशत किग्रा. प्रति हेक्टेयर देते हैं जिसका मतलब 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 75 किग्रा फास्फोरस एवं 7 किग्रा पोटाश की आवश्यकता होती है।

फास्फोरस और पोटाश का पूरा और नाइट्रोजन का आधा भाग बुवाई के समय ही दे देते हैं जबकि शेष बचा हुआ भाग नाइट्रोजन फली विकास के समय देते हैं क्योंकि इस अवस्था में पौधे को उर्वरक की अधिक आवश्यकता होती है।

सिंचाई प्रबंधन-

ग्वार एक सूखा सहनशील फसल है। अधिक उत्पादन लेने के लिए एक निश्चित समय अंतराल 7 से 10 दिन पर पानी देते रहते हैं।

ग्वार में मुख्यतः दो अवस्थाओं- पुष्पन व फली विकास, के समय पानी की कमी फसल के लिए हानिकारक है अतः इस समय पानी का उचित प्रबंध आवश्यक है। वर्षा आश्रित रेनफेड क्षेत्रों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है।

खरपतवार प्रबंधन-

खरीफ की फसलों में एक से दो निराई आवश्यक है। खरपतवार नाशी का प्रयोग करके खरपतवार प्रबंध किया जा सकता है, जिससे हमारी फसल को उचित मात्रा में पोषण, वायु एवं जल मिल सके।

तुड़ाई एवं उपज

हरी फली बुवाई के 45 दिनों बाद तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है जबकि सूखे दानों वाली फसल फली के पूरी तरह भरने तथा हल्के पीले रंग में परिवर्तित होने पर तैयार होती है। अगर हरी खाद के उद्देश्य से ग्वार की खेती की जाती है तो फली के विकसित होते ही फसल की जुताई की जा सकती है।

इसमें आसानी से हरी फली की उपज 4 से 5 टन प्रति हेक्टेयर तथा बीज की पैदावार 0.5 से 1.0 क्विंटल  प्रति हैक्टर प्राप्त की जा सकती है।

ग्वार बीज उत्पादन

ग्वार एक स्वपरागण फसल है जिसके बीज उत्पादन के लिए 25 से 50 मीटर पृथक्करण दूरी रखते हैं ताकि जिससे भली प्रकार से आधारित एवं प्रमाणित बीजों का उत्पादन हो सके जब 60 से 70% फलियों का रंग हरे से हल्का भूरा हो जाता है तब इसकी तुड़ाई की जाती है और फिर इसको सतह पर 8 से 10 दिन रख कर सुखा लेते हैं जिससे अंततः थ्रेसिंग की जाती है।


Author

शिवेन्द्र कुमार1, राघवेन्द्र कुमार आर्यन2

1शोध छात्र (उद्यान विभाग), बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (लखनऊ), उ.प्र.

2शोध छात्र (कृषि मौसम विज्ञान विभाग), आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (अयोध्या), उ.प्र.

ईमेल: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

 

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