ग्वार का महत्त्व एवं उत्पादन की उन्नत तकनीक

ग्वार शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली दलहनी फसल है जो कि एक अत्यन्त सूखा एवं लवण सहनशील है। अतः इसकी खेती असिंचित व बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। ग्वार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के गऊ आहार से हुई है जिसका तात्पर्य “गाय का भोजन” है। विश्व के कुल ग्वार उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत भाग अकेले भारत में पैदा होता है जोकि 65 देशों में निर्यात किया जाता है।

ग्वार की खेती प्रमुख रूप से भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों (राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, उत्तरप्रदेश एवं पंजाब) में की जाती है। हमारे देश के कुल ग्वार उत्पादक क्षेत्र का लगभग 87 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान के अन्तर्गत आता है। राजस्थान में ग्वार की खेती मुख्यतः चुरू, नागौर, बाडमेर, सीकर, जोधपुर, गंगानगर, सिरोही, दौसा, बीकानेर, हनुमानगढ एवं झुन्झुनू में की जाती है।

ग्वार का महत्त्व-

  • ग्वार एक बहुउद्देशीय फसल है जिसका प्राचीनकाल से ही मनुष्य एवं पशु आहार के लिए महत्त्व रहा है। इसमें प्रोटीन, घुलनशील फाइबर, विटामिन्स (के, सी, ए), कार्बोहाइड्रेट के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में खनिज, फास्फोरस, कैल्शियम, आयरन एवं पौटेशियम आदि भी पाया जाता है।
  • इसकी ताजा व नरम हरी फलियों को सब्जी के रूप में खाया जाता है जो कि पौष्टिक होती है।
  • ग्वार फली विभिन्न रोगों जैसे - खून की कमी, मधुमेह, रक्तचाप, आंत की समस्याओं में लाभकारी है एवं हड्डियों को मजबूत करने, दिल को स्वस्थ रखने, रक्त परिसंचरण को बेहतर करने के साथ-साथ मस्तिष्क के लिए भी गुणकारी है।
  • इसके दानों में ग्लेक्टोमेनन नामक गोंद होता है जो संपूर्ण विश्व में ‘ग्वार गम’ के नाम से प्रचलित है। जिसका इस्तेमाल खाद्य पदार्थों (आइसक्रीम, पनीर, सूप) व औषधि निर्माण में किया जाता है।
  • श्रृंगार वस्तुओं जैसे लिपिस्टिक, क्रीम, शेम्पू और हैण्ड लोशन में भी ग्वार गम का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा दन्त मंजन, शेविंग क्रीम जैसी वस्तुओं के निर्माण में भी गम का प्रयोग होता है।
  • इसके अलावा खनिज, कागज व कपड़ा उद्योग में भी ग्वार गम महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कागज निर्माण के समय ग्वार गम को लुगदी में मिलाया जाता है जिससे कागज ठीक से फैल सके और अच्छी गुणवत्ता का कागज तैयार किया जा सके। कपड़ा उद्योग में यह मांडी लगाने के उपयोग में लाया जाता है।
  • इसका उपयोग करने से दुधारू पशुओं में दूध उत्पादन में बढोतरी होती है।
  • इसका प्रयोग खेतों में हरी खाद के रूप में भी किया जाता है जिसके लिए फसल में फूल आने के बाद एवं फली पकने से पहले मिट्टी पलटने वाले हल से भूमि में दबा दिया जाता है।
  • यह वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करती है जिससे जमीन की उर्वरा शक्ति बढती है।
  • ग्वार गम का प्रयोग विस्फोटकों को जलामेथ करने में तथा तेल ड्रिलिंग उद्योगों में डाट लगाने के लिए भी महत्वपूर्ण है। ग्वार गम का उपयोग विभिन्न पेट्रोलियम पदार्थों को तैयार करने में भी किया जाता है।

ग्वार उत्पादन तकनीक

ग्वार की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट एवं दोमट मिट्टी जिसका पीएच मान 7.5 से 8.5 तक हो, सर्वोत्तम रहती है।

खेत की तैयारी-

ग्वार के अच्छे उत्पादन के लिए रबी फसल की कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में बुआई से पहले 15-20 टन प्रति हैक्टर सड़ी हुई गोबर की खाद मिलानी चाहिए। गोबर की खाद में 8-10 किग्रा ट्राइकोडर्मा पाउडर डालकर खेत में अच्छी तरह मिला दें जिससे फसल को मृदाजनित रोगों से सुरक्षा मिलती है।

ग्वार का बेहतर उत्पादन लेने के लिए 20-25 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा सल्फर की सिफारिश वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। सभी उर्वरक बुवाई के समय या अंतिम जुताई के समय देने चाहिए।

फास्फोरस के प्रयोग से न केवल चारे की उपज में वृद्धि होती है बल्कि उसकी पौष्टिकता भी बढ़ती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो जुताइयां ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर से करें। अंतिम जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं जिससे मृदा नमी संरक्षित रहे। इस प्रकार तैयार खेत में खरपतवार कम पनपते हैं। साथ ही वर्षा जल का अधिक संचय होता है।

बुआई का समय एवं बीज की मात्रा-

ग्वार की बुआई दो समय पर की जा सकती है:

1. सब्जी के लिए ग्वार को फरवरी-मार्च में सरसों, गन्ना आदि के खाली पड़े खेतों में बोया जाता है।

2. जून-जुलाई में ग्वार मुख्य रूप से चारे और दाने के लिए पैदा की जाती है। इस फसल की बुआई प्रथम मानसून के बाद जून या जुलाई में की जानी चाहिए। ग्वार की फसल के लिए 12-15 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर बीज की आवश्यकता पडती है।

अच्छी पैदावार के लिए बुवाई हमेशा पंक्तियों में हल के कुंड़ों में अथवा सीड ड्रिल की सहायता से करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंमी आदर्श मानी जाती है। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे बीज का जमाव शीघ्र व पर्याप्त मात्रा में हो सके।

किसान भाइयों को सलाह दी जाती है कि बुवाई कभी भी छिटकवां विधि से न करें। इसमें समय तो कम लगता है परंतु उपज काफी कम मिलती है व शस्य क्रियाओं को करने में भी परेशानी होती है।

ग्वार का बीजोपचार

बीजों के अच्छे जमाव व फसल को रोगमुक्त रखने के लिए बीज को सबसे पहले बाविस्टिन या कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा से 2 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करें। पौधों की जड़ों में गांठों का अधिक निर्माण हो व वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में अधिक यौगिकीकरण हो, इसके लिए बीज को राईजोबियम व फॉस्फोरस सोलूबलाइजिंग बैक्टीरिया (पी.एस.बी.) कल्चर से उपचारित करना चाहिए।

ग्वार की उन्नत किस्में-

  • हरे चारे हेतु - एचएफजी-119, एचएफजी-156, ग्वार क्रांति, मक ग्वार, बुंदेल ग्वार-1 (आईजीएफआरआई-212-1), बुंदेल ग्वार-2, आरआई-2395-2, बुंदेल ग्वार-3 एवं गोरा-80
  • हरी फलियों हेतु - आईसी-1388, पी-28-1-1, गोमा मंजरी, एम-83, पूसा सदाबहार, पूसा मौसमी, पूसा नवबहार एवं शरद बहार
  • दाने के लिए - मरू ग्वार, आरजीसी-986, दुर्गाजय, अगेती ग्वार-111, दुर्गापुरा सफेद, एफएस-277, आरजीसी-197 एवं आरजीसी-417

खरपतवार एवं सिंचाई प्रबंधन-

खरपतवारों की रोकथाम के लिए बुआई के एक माह बाद एक निराई-गुडाई करनी चाहिए तथा बुआई के तुरन्त बाद बासालीन 2.0 लीटर या पैंडीमेथेलिन 3.0 लीटर प्रति हैक्टेयर 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। सामान्यतः जुलाई में बोई गई फसलों में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। परन्तु वर्षा न होने की दशा में सिंचित क्षेत्रों में एक सिंचाई फलियाँ बनते समय अवश्य करनी चाहिए।

प्रमुख कीट-

ग्वार की फसल में कीटों से अधिक नुकसान नहीं होता है फिर भी ग्वार में लगने वाले कीटों में मुख्यतया एफिड़ (माहू), लीफ माईनर, सफेद मक्खी, लीफ हापर/ जैसिड़ व केटरपिलर हैं। ये कीट पत्तियों का रस चूसकर व इन्हें खाकर नुकसान पहुँचाते हैं।

भरपूर उत्पादन हेतु इन कीटों को नियंत्रित करना बहुत जरूरी है। इन रस चूसक कीटों के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोरपिड़ 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा मिथाईल डेमेटोन 25 ई.सी. या डाईमिथोएट 30 ई.सी. 500 मि.ली./हैक्टेयर का छिड़काव करें।

प्रमुख रोग-

ग्वार की फसल के प्रमुख रोगों में जीवाणु अंगमारी, ऑल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी, जड़ गलन, चूर्णिल आसिता व ऐन्थ्रेक्नोज है।

जीवाणु अंगमारी के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों की ऊपरी सतह पर धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। ये धब्बे जल्दी ही पूरी पत्तियों को ढ़क लेते हैं अतः पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव हेतु रोगरोधी किस्में बोएं एवं बुवाई से पूर्व बीज उपचार करें। स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 100-250 पीपीएम (100-250 मिलीग्राम प्रति लीटर) घोल का छिडकाव करना चाहिए।

ऑल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी फफूंदजनित रोग है जो वर्षा होने के समय फसल को नुकसान पहुंचाती है। इसमें पत्तियों के किनारों पर गहरे भूरे, गोलाकार व अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। परिणामस्वरूप पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और अन्ततः झड़ जाती हैं। इससे बचाव हेतु जिनेब 75% WP के 0.25 प्रतिशत का छिड़काव रोग के लक्षण प्रकट होने पर 15 दिन के अंतराल पर दो या तीन बार करें। ऐन्थ्रेक्नोज भी एक फफूंदीजनित रोग है इसमें पौधों के तनों, पर्णवृन्तों और पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं। इससे बचाव हेतु भी जिनेब 75% WP का 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।

जड़ गलन रोग से बचाव हेतु वीटावैक्स या बाविस्टीन की दो ग्राम व ट्राइकोडर्मा 10 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने के बाद बुवाई करनी चाहिए।

हरे चारे के रूप में ग्वार की कटाई का समय-

ग्वार के हरे चारे वाली फसल की कटाई बुआई के 50-60 दिन के बाद फूल आने की अवस्था में की जानी चाहिए। फली बनने की अवस्था में ग्वार के हरे चारे को खिलाना दुधारू पशुओं के लिए उपयोगी होता है।

ग्वार की कटाई और उपज-

जब फसल पक जाये व पतियाँ पीली पड कर झड़ जायें और फलियों का रंग भूसे जैसा दिखने लगे तब ग्वार की कटाई कर लेनी चाहिए। ग्वार फसल से हरे चारे की औसत उपज 175-250 क्विंटल प्रति हैक्टर एवं हरी फलियों की उपज 40-60 क्विंटल प्रति हैक्टर और दाने की उपज 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त होती है। यद्यपि ग्वार फली की उपज मौसम, किस्म, मृदा के प्रकार व सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर करती है।

 


Authors:

गुरविन्द्र सिंह एवं राम गोपाल सामोता

तकनीकी अधिकारी, केन्द्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केन्द्र, श्रीगंगानगर (राज.)

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