Nematode and fungal interactions in cotton, their symptoms, management and their status in Haryana

कपास भारत की एक प्रमुख नकदी फसल है, जिसे कई जैविक कारकों से नुकसान होता है। सूत्रकृमि और मृदाजनित फफूंद के सहजीवी प्रभाव से पौधों को गंभीर क्षति होती है, जिससे उत्पादन में भारी गिरावट आती है। इनमें मुख्य रूप से जड़-गांठ सूत्रकृमियों का प्रकोप ज्यादातर देखा गया है, जो पौधे की जड़ों पर आक्रमण करते है।

सूत्रकृमि ग्रसित पौधों के लक्षण, सूत्रकृमियों की प्रजातियों के आधार पर भिन्न होते हैं। अतः इन सूत्रकृमि की पहचान करना जरूरी है एवं इनसे होने वाले रोगों की पहचान कर इन्हे विभिन्न विधियों द्वारा नियंत्रण किया जा सके। खेतो में सूत्रकृमि की समस्या किसानों के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। जिसमे कपास की फसल भी शामिल है।

आम आदमी के लिए खेतों में सूत्रकृमि का पता लगाना काफी मुश्किल है। अगर पौधे बढ़ न पा रहे हो, पौधे सूख के मुरझा जाते हो तथा उनकी जड़ो में गांठे बन गयी हो, उनमे फल व फूल की संख्या कम हो गयी हो एवं फसल की औषत पैदावार कम हो गई हो, तब किसान यह अनुमान लगा सकता है कि उसके पौधे सूत्रकृमि से ग्रस्त है किसान कुछ उपायों को अपनाकर सूत्रकृमि को नियंत्रण कर सकते है।  

सूत्रकृमि पौधों की जड़ों पर प्रभाव डालते हैं, जिससे फफूंद को संक्रमण करने का अवसर मिलता है। इस लेख में, कपास में सूत्रकृमि और फफूंद के पारस्परिक प्रभाव, उनके लक्षण, प्रबंधन रणनीतियों और हरियाणा में उनकी स्थिति पर चर्चा की गई है। 

रोग: कपास का जड़-गाँठ सूत्रकृमि

रोगजनक: जड़-गाँठ सूत्रकृमि (मलायडोगाइनी इंकॉगनिटा)

सूत्रकृमि ग्रसित पौधों के लक्षण

  • जड़ों द्वारा जल व पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता कम हो जाती है।
  • प्रभावित पौधों बौने कमजोर रह जाते है और फुटाव कम होता है।
  • दिन के समय पौधों का मुरझाना।
  • सूत्रकृमि से प्रभावित पौधों के पत्ते पीले होकर सूखने लगते है। रोगी पौधों पर फल कम तथा छोटे आकर के लगते हैं जिससे उपज बहुत घट जाती है।
  • जड़ों में गांठों का बनना व आपस में विभक्त होकर गुच्छा बना लेती है। 
  • जड़ों को सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने से इन पर सूत्रकृमि की मादाएं दिखाई देती हैं।
  • पैदावर में कमी आ जाती है।

सूत्रकृमि और फफूंद का परस्पर प्रभाव

सूत्रकृमि और फफूंद के बीच परस्पर क्रिया सहजीवी होती है, जहां दोनों मिलकर पौधों को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। सूत्रकृमि जड़ों को क्षति पहुँचाकर फफूंद के लिए प्रवेश द्वार तैयार करते हैं, जिससे पौधों में रोगों की गंभीरता बढ़ जाती है।

प्रमुख सूत्रकृमि-फफूंद परस्पर क्रियाएँ:

  • जड़-गाठ सूत्रकृमि और फ्यूजेरियम विल्ट 
  • सूत्रकृमि द्वारा बनाए गए गॉल (गांठें) फफूंद को संक्रमित करने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं।
  • यह जड़ों की वाहिकीय प्रणाली को प्रभावित करता है, जिससे पौधों में जल व पोषक तत्वों का प्रवाह बाधित होता है।
  • रेनिफॉर्म सूत्रकृमि और फ्यूजेरियम विल्ट
  • रेनिफॉर्म सूत्रकृमि पौधों की जड़ों को कमजोर बनाते हैं, जिससे फफूंद आसानी से आक्रमण कर पाती है।
  • यह कपास की वृद्धि को रोकता है और उत्पादन में भारी गिरावट लाता है।
  • जड़-घाव सूत्रकृमि और राइजोक्टोनिया (जड़ गलन और डैम्पिंग-ऑफ)
  • जड़-घाव सूत्रकृमि द्वारा जड़ों में बने घाव राइजोक्टोनिया जैसे फफूंदों को संक्रमण करने में मदद करते हैं।
  • यह बीज अंकुरण को प्रभावित करता है और पौधों को समय से पहले मुरझाने का कारण बनता है।

पत्तियों और तने पर लक्षण:

  • पीलापन और मुरझाना।
  • पौधे की वृद्धि में कमी।
  • पत्तियों का असमय गिरना।

बोल (टिंडा) पर लक्षण:

  • अपरिपक्व और क्षतिग्रस्त टिंडा।
  • रेशे की गुणवत्ता में कमी।

हरियाणा में सूत्रकृमि और फफूंद का प्रकोप

हरियाणा में, विशेष रूप से हिसार, सिरसा, फतेहाबाद और भिवानी जिलों में सूत्रकृमि और फफूंद जनित रोगों की समस्या अधिक देखी जाती है।
अनुमानित रूप से, संयुक्त संक्रमण के कारण 40-50% तक उत्पादन की हानि हो सकती है।

कपास में कम फसल चक्र, अधिक कीटनाशकों का उपयोग और प्रतिरोधी किस्मों की कमी के कारण समस्या बढ़ती जा रही है।

प्रबंधन रणनीतियाँ  

प्रबंधन

खेतों को सूत्रकृमियों से पूर्णंत: मुक्त करना व्यावहारिक रूप से असभ्भव होता है। सूत्रकृमियों के कारगर नियंत्रण के लिये सबसे पहले सूत्रकृमि की पहचान, रोगजनक, रोग के लक्षण आदि की पहचान होना आति आवश्यक है जिससे इनके रोकथाम करने के लिए विभिन्न उपाय अपनाने मे आसानी हो सके ।

इसके अलावा, किसानों को सलाह दी जाती है कि वे फसल की रोपाई से पहले मिट्टी की सूत्रकृमि हेतु जाँच कराए, फसल चक्र अपनाये एवं समन्वित सूत्रकृमि प्रबंधन पैकेज का पालन करें। सूत्रकृमि सलाहकार सेवा, समस्या की सही पहचान करने और इन सूत्रकृमियों के प्रबंधन के सर्वोत्तम तरीकों के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए आवश्यक सेवा प्रदान करती है।

  • इन सूत्रकृमियों से निपटने के लिए ग्लुकोनएसीटोबैक्टर डाईजोट्रोफिकस स्ट्रेन 35-47 (बायोटिका) को 50 मिली लीटर प्रति एकड़ बीज की दर से बीज उपचार करें । इन बीजों को छाया में सूखा कर बिजाई करें ।
  • खेत को खरपतवार रहित रखे क्योंकि यह सूत्रकृमि बहुत से खरपतवारो पर भी पनपता है।
  • बाजरा, ज्वार, सरसों जैसी गैर-मेजबान फसलों की खेती से सूत्रकृमि और फफूंद के संक्रमण को कम किया जा सकता है।
  • इससे सूत्रकृमि और फफूंद के प्रोपेग्यूल (संक्रमण इकाइयों) को सूर्य की किरणों द्वारा नष्ट किया जा सकता है।
  • इस समस्या से प्रभावित पोधो के आसपास स्वस्थ पौधों में एक मीटर तक कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) २ ग्राम प्रति लीटर पानी के साथ पानी का घोल बनाकर १०० से २०० मिलीलीटर प्रति पौधा जड़ो में डालें।

निष्कर्ष

कपास में सूत्रकृमि और फफूंद के पारस्परिक प्रभाव से भारी उत्पादन हानि होती है। इसके प्रभावी प्रबंधन के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन अपनाना आवश्यक है, जिसमें जैविक, सांस्कृतिक, प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग और रसायनिक विधियाँ शामिल हैं। हरियाणा में इस समस्या की बढ़ती प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक सालाह और किसानों में जागरूकता बढ़ाना अनिवार्य है।


Author’s details 

रूबल काम्बोज1, दीपक कुमार2, कर्मल सिंह मलिक3 एवं अनिल कुमार सैनी4 

कपास अनुभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार

1रूबल कंबोज (पीएचडी स्कॉलर, नेमाटोलॉजी विभाग, सीसीएसएचएयू, हिसार)

2डॉ. दीपक कुमार (सहायक वैज्ञानिक, कपास अनुभाग आनुवंशिकी और पादप प्रजनन विभाग, सीसीएसएचएयू, हिसार)

3डॉ. कर्मल सिंह मलिक (वरिष्ठ वैज्ञानिक, कपास अनुभाग आनुवंशिकी और पादप प्रजनन विभाग, सीसीएसएचएयू, हिसार)

4डॉ. अनिल कुमार सैनी (सहायक वैज्ञानिक, कपास अनुभाग आनुवंशिकी और पादप प्रजनन विभाग, सीसीएसएचएयू, हिसार)

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