Integrated Disease and Pest Management for  Prevention of Wilt in Guava

Wilt infestation in guava plant

अमरुद उष्ण- उपोष्णकटिबंधीय देशो की एक महत्वपूर्ण फल फसल है| अमरूद अक्सर कटिबंधों के सेब के रूप में जाना जाता है| यह उष्णकटिबंधीय अमेरिका का मूल निवासी है और भारत में देशीयकृत हुआ है|

यह व्यावसायिक रूप से भारत , चीन , इंडोनेशिया , दक्षिण अफ्रीका , फ्लोरिडा , हवाई,  मिस्र , यमन , ब्राजील , मेक्सिको , कोलंबिया , वेस्टइंडीज , क्यूबा , वेनेजुएला , न्यूजीलैंड , फिलीपींस , वियतनाम और थाईलैंड में मुख्य फसल है और इसकी वजह साल भर  उपलब्धता, उच्च  पोषण सतर, औषधीय मूल्य , और वहन करने योग्य कीमत , परिवहन , हैंडलिंग  आदि है|

यह भारत के लगभग सभी राज्यों में उगाया जाता है| भारतीय अमरूद की सभी  किस्मे एक ही जाती से है जो की गुअजावा है| अमरूद अक्सर अमीर फल के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके बीज ओमेगा 3 और ओमेगा 6 संतृप्त फैटी एसिड  से भरपूर है|

विशेष रूप से फल में रेशे साथ ही विटामिन ए और सी पाया जाता है| यह  पोटेशियम, मैग्नीशियम, आवश्यक पोषक तत्वों से अभिग्रहित है साथ ही कैरोटीन, पोलीफीनोल, एंटीओक्सिडेंट का भी अच्छा स्रोत है|

अमरुद की तीन फसले आती है पर सर्दियों की सबसे अच्छी फसल मानी जाती है, लेकिन बहुत से लोग इसे ठंडी तासीर का समझ कर इसका सेवन नहीं करते है जबकि यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढानें में मदद करता है|

नियमित रूप से इसका सेवन करने से सामान्य मौसमी बीमारियों से बचा जा सकता है यह विटामिन सी का अच्छा स्रोत है जो की सफ़ेद रक्त कणों को तेजी से संक्रमण से लड़ने में मदद करता है| इस तरह हमारी प्रतिरोधक  क्षमता में कई गुना  वृद्धि हो जाती है|

इसमें फाइबर का भी प्रचुर भंडार है| यह कोलेस्ट्रोल से मदद करता है साथ ही दिल  के रोगों से बचाव करता है|

विटामिन ए कीटाणु को रोक कर शरीर में प्रवेश करने से पहले ही खत्म कर देता है इसमें मोजूद लायकोपिन सूरज की हानिकारक किरणों से बचाता है तथा  त्वचा कैंसर से सूरक्षा करता है| प्राकृतिक अवस्था में खाना सबसे ज्यादा फायदेमंद होता है सुबह के समय इसे पीना भी काफी लाभकारी होता है|

बहुत सारे आर्थिक और स्वास्थ्य लाभ होते हुए भी बहुत सारी ऐसी समस्या है जो अमरुद के विकास में अवरोध पैदा करती है| यह बहुत कम देखभाल के भी आसानी से लग जाता है| पर बहुत सी बीमारियों से प्रभावित होता है जिनमे से कवक का प्रमुख योगदान है| 

अमरुद की फसल में  रोग एवं कीट नियंत्रण

अमरुद की फसल को कई रोग हानि पहुंचाते है जिनमे म्लानी रोग, तना केकर,  एनेथ्रकनोज, स्कैब, फल विगलन, फल चिती तथा पोध अंगमारी प्रमुख है| अमरुद में लगने वाले विभिन्न कीड़ो में तना वेधक कीट, अमरुद की छाल भचछी इल्ली, स्केल कीट तथा फल मक्खी आदि प्रमुख है| अतः सभी की रोकथाम आवश्यक है|

अमरुद में बरसात की फसल में फल मक्खी  भी बहुत नुकसान पहुंचाती है| इसकी रोकथाम के लिए सबसे पहले मक्खी से सदुषित फलो को एक जगह करके नष्ट करे| पेड़ो के बेसिन की जुताई करे तथा मिथाइल उजिनोल के 8-10 ट्रैप को(100 मी. ली घोल में 0.1 प्रतिशत मिथाइल उजिनोल तथा 0.1 प्रतिशत मेलाथीओंन) प्रति हेक्टयर पर पेड़ो की डालियों पर 5-6 फीट ऊंचे लटका दे| यह बहुत ही प्रभावी तकनीक  है साथ ही इस घोल को प्रति सप्ताह बदलते रहना चाहिए|

अमरुद में विल्ट

विल्ट एक बहुत ही नुकसान करने वाली बीमारी है| यह भारत में सबसे पहले इलाहाबाद में १९३५ में अवलोकित हुई| यह एक मिट्टी जनित रोग है और इसका नियंत्रित करना बहुत ही मुश्किल है| यह  फुसरियम ओकसिस्पोरुम से होता है|इसके आलावा और भी कई जातिया है जैसे फुसरियम सोलानी आदि|

इस रोग से पूरी तरह पादप प्रभावित होता है और मर जाता है| यह वार्षिक और बहुवार्षिक दोनों ही फसलो को नुकसान पहुचाता है| इस रोग की वजह से भारत में इसे लगाने में चिंता का विषय है साथ ही इससे होने वाली आय और पोषकता को भी नुकसान है|

सन १९४७ में यह उत्तरप्रदेश के ग्यारह जिलो में व्यापक तोर से पाई गयी| उसके बाद बंगाल, हरियाणा, पंजाब राजस्थान, झारखंड, आँध्रप्रदेश में पाई गयी| इसी तरह यह अमेरिका, ताईवान, अफ्रीका,पाकिस्तान,बांग्लादेश, ब्राज़ील ऑस्ट्रेलिया आदि देशो में भी अवलोकित हुई| सिंह और लाल के अनुसार उत्तरप्रदेश के बारह जिलो में हर साल यह ५-१५ प्रतिशत तक नुकसान पहुचाते पाई गयी| पश्चिम बंगाल में अस्सी प्रतिशत तक नुकसान पाया गया भारतीय अमरूद की सभी किस्मों एक ही जाती से है जो की गुअजावा है|

अमरुद में विल्ट लक्षण

विल्ट से प्रभावित पादप की पतिया पीली होने लगती है| साथ ही किनारे वाली पतिया अन्दर की तरफ से मुड़ने लगती है| अंत में यह लाल होकर झड़ने लगती है|

टहनियों में कोई भी पत्ती दिखाई नयी देती और यह सूखने लगती है| ऐसी टहनियों पर लगे फल अविकसित रह जाते है और काले रंग के होने लगते है साथ ही कठोर भी हो जातें है और पूरी तरह इस प्रक्रिया में सोलह दिन लग जाते है, आखिर में पोधा मर जाता है|

बहुत से अनुसंधानकर्ता ने इस रोग के लक्षणों में  मौसम के हिसाब से असमानता देखी है| जड़ो पर भी इसका असर देखने को मिलता है| जड़ो के आधार भागों पर गलन शुरू हो जाती है और काले रंग की  धारियाँ भी बनने लगती है|

यह नए और पुराने दोनों तरह के पोधो पे असर करती है, पर पुराना बाग अधिक प्रभावित होता है| नयी पोध में वर्धि धीमी हो जाती है| फूल यदा कदा बहुत ही कम आते है और बहुत ही कम समय में सुखा इसे जकड लेता है|

रोगकारक

फुसरियम ओक्सिस्पोरुम सिदी एवं फुसरियम ओक्सिस्पोरुम सोलानी अमरुद में मुख्य रूप से विल्ट करते है| यह सीधे या तो जड़ो से प्रवेश करता है या दिर्तीयक जड़ो से प्रवेश करता है साथ ही यह रोगकारक विभिन्न मॉर्फ़ और कल्चरल रूप में मिलता है| यह आर्डर मोनिअलेस से है एवं इसकी फॅमिली तुबेर्कुल्रानासाए है| यह सभी मर्तभक्षी है|

रोग की गभीरता के कारण

इसके लक्षण मिटटी पी. एच्. ७.५ से ९.0  में ज्यादा देखने को मिलते है| इसे प्रभावित पोधे वर्षा ऋतू से लेकर अक्टूबर माह तक ज्यादा लक्षण दर्शाते है| जबकि शुरुआत जून से ही हो जाती है साथ ही एक महीने से २ महीने के अन्दर यह पूरी तरह सुख कर मृत हो जाते है|

अमरुद के बाग में काफी दिनों तक पानी भरा रहने के कारण साथ ही समय पर नियंत्रण न करने के  कारण भी यह रोग अधिक होता है|

रोकथाम

समन्वित विधि

  • रोग की बाग की अच्छी स्वछता से भी रोकथाम की जा सकती है|
  • सूखे पेड़ो को जड़ सहित उखाड़ देना चाहिए एवं जला कर गाड़ देना चाहिए|
  • पोध रोपण के समय यह धयान देना चाहिए की जड़ो को नुकसान न पहुंचे|
  • गड्डों को फोर्मलिन से उपचार करना चाहिए और तीन दिन के लिए ढक देना चाहिए और पोध रोपण इसके दो हफ्ते बाद करना चाहिए|
  • चूँकि यह मिटटी जनित रोग है इसलिए भूमि में ब्रसिकोल एवं बाविस्टीन (0.1%) जड़ो और पत्तियों के चारो और पन्द्रह दिन के अन्तराल पर डालना चाहिए|
  • कर्बिनिक खाद , खली, चुना आदि भी रोग को रोकने में सहायक होते है|
  • जैवकारक जैसे एसपेर्जिल्लुस नाइजर ए.ऍन. १७, प्रतिरोधी मूलवरन्त, गेंदा की फसल को साथ में प्रयोग में लाया जा सकता है|ताइवान में एक लोकल किस्म पेई-पा पहचानी गयी है| इसके अलावा सिडियम कत्तेलिअनुम किस्म लुसिदियम साथ ही जामुन इसी तरह चाइनीज़ और फिल्लिपेनेस मूलवरन्त को प्रयोग में लाया जा सकता है|
  • रसायनिक नियंत्रण की जगह अगर प्राकृतिक कवकनाशी प्रयोग में लाये तो ज्यादा अच्छा होगा क्योंकि रसायनों के अवशेष भी रह जाते है साथ ही कवको में प्रतिरोधिता विकसित होने लगती है| जिनसे इनका असर कम हो जाता है लैंटाना, नीम, तुलसी, इसबगोल, धतूरा, हल्दी, आक आदि  रोगकारक को कुछ हद तक रोकने में कारगार सिद्ध हुए है|

Authors:

निमिषा शर्मा*1, के. उषा1, ए. के. दूबे1, अजय क. महतो2 एवं भुपेंदिर सिंह3

1वैज्ञानिक एवं वरिषठ वैज्ञानिक, शोधकर्ता, जेव प्रोधयोगिकी संभाग,

3वरिषठ वैज्ञानिक ,वनस्पति शरीर क्रिया  विज्ञान,

 भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई देहली, ११००१२

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