भारत में दलहन उत्पादन की संभावनाएं 

प्राचीन काल से ही भारत में उगाई जाने वाली फसलों में दलहनी फसलों का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। शाकाहारी भोजन में प्रोटीन का मुख्य जरीया होने के कारण दलहनी फसलों का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। ये फसलें सामान्यतः प्रोटीन की प्रमुख स्त्रोत मानी जाती है।

दलहनी फसलों के अंतर्गत प्रमुखतः अरहर, मूंग, उड़द की खेती खरीफ मौसम में तथा चना, मसूर, राजमा एवं मटर की खेती रबी मौसम में की जाती है। भारत के कई स्थानों में मूंग एवं उड़द की खेती जायद में भी की जाती है।

दलहनी वर्ग की इन सभी फसलों में प्रोटीन काफी मात्रा में होने के कारण इन में नाइट्रोजन की भी जरूरत पड़ती है। इन फसलों में नाइट्रोजन की मात्रा की पूर्ति वायुमंडल में मौजूद आण्विक नाइट्रोजन से हो जाती है। दलहनी फसलें लेग्यूमेनेसी कुल की फसलें हैं। लेग्यूमेनेसी कुल की फसलों की विशेषता होती है कि उनकी फसलों की जड़ों में ग्रंथियां पाई जाती हैं तथा इन ग्रंथों में राइजोबियम नामक जीवाणु सहजीवन करता है।

राइजोबियम नामक जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का मिट्टी में स्तरीकरण करके मिट्टी को नाइट्रेट की आपूर्ति करता है और इस प्रकार से मिट्टी में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ाकर दलहनी फसलें मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती हैं। परंतु अन्य फसलें मिट्टी की उर्वरता को घटा देती हैं। इस कारण इन फसलों को ज्यादा नाइट्रोजन की जरूरत नहीं पड़ती है। राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी में दलहनी फसलों की 60-150 किग्रा० नाइट्रोजन/हे० स्थिर करने की क्षमता होती है।

दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी उगती है। भूमि को पत्तियों एवं तनों से ढक लेती है जिससे मृदा क्षरण कम होता है। दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है। दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है जिससे सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।

मृदा के लगातार दोहन से उसमें उपस्थित पौधे की बढ़वार के लिये आवश्यक तत्त्व नष्ट होते जा रहे हैं। इनकी क्षतिपूर्ति हेतु व मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिये हरी खाद एक उत्तम विकल्प है। बिना गले-सड़े हरे पौधे (दलहनी एवं अन्य फसलों अथवा उनके भाग) को जब मृदा की नत्रजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिये खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं। इसमें पशु धन में आई कमी के कारण गोबर की उपलब्धता पर भी हमें निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है।

उत्तर-पश्चिम भारत में रबी फसलों की कटाई के बाद प्रायः कम अवधि वाली दलहनें उगायी जा सकती हैं। धान-गेहूं फसल प्रणाली में ग्रीष्म में मूंग की फसल से फली तोड़ने के बाद मूंग की खड़ी फसल की जुताई करके इसका प्रयोग हरी खाद के रूप में करने से धान की उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त की जा सकती है। अतः हमें हरी खाद के यथासंभव उपयोग पर गंभीरता से विचार कर क्रियान्वयन करना चाहिये।

हमारे देश में दलहनी फसलों की खेती लगभग 30 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है। जिनमें लगभग 23.5 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन होता है। दलहन प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत है जिसको आम जनता भी खाने में प्रयोग कर सकती है, लेकिन भारत में इसका उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं है।

पोषण वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे संतुलित आहार में 80 ग्राम दाल प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आवश्यक है, लेकिन वर्तमान में इसकी उपलब्धता केवल 38 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ही है, जिसका प्रमुख कारण प्रति हेक्टेयर उपज का कम होना है।

दालों के उत्पादन और उपभोग दोनों में भारत का प्रथम स्थान है लेकिन इसके बावजूद कृषि उत्पादों में सर्वाधिक आयात दालों का है क्योंकि शाकाहारी जनसंख्या की प्रोटीन प्राप्ति का प्रमुख साधन दाल है। अतः हमारे देश में दाल की अत्यधिक खपत के कारण दाल आयात करना पड़ता है।

दलहनी फसलों की पैदावार कम होने के प्रमुख कारण

1. दलहनी फसलों की खेती मुख्यतः असिंचित क्षेत्रों में की जाती है, जहां पर नमी एवं पोषक तत्वों की कमी होती है।
2. किसानों में दलहनी फसलों की खेती, उन्नत किस्मों एवं तकनीक की जानकारी का अभाव है।
3. कीट व्याधियों, बीमारियों तथा खरपतवारों का उचित समय पर प्रभावी नियंत्रण न कर पाना, आदि।

असिंचित क्षेत्रों में, दलहनी फसलें अपनी प्रारंभिक अवस्था में बहुत ही धीरे-धीरे वृद्धि करती है। इसके अलावा कतारों के बीच की जगह ज्यादा होने से खाली जगह पर पौधों की छाया कम होती है, जिससे खरपतवार इन फसलों से तीव्र प्रतिस्पर्धा करके भूमि में निहित नमी एवं पोषक तत्वों के अधिकांश भाग का शोषण करते है, फलस्वरूप फसल की विकास गति इतनी धीमी और संकुचित हो जाती है कि अंत में पैदावार कम हो जाती है।

जलवायु परिवर्तन से धरती के मौसम में असामयिक बदलाव देखे जा रहे हैं इनमें मानसून के आने में देरी, शीतलहर का प्रकोप तथा अत्यधिक गर्मी से जीव जन्तुओं पर बुरा असर शामिल है। इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ावा देने मे रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग शामिल है जो वातावरण को प्रदूषित करने के साथ ही मनुष्यों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है।

इन सभी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए दलहनी फसलों का अधिक से अधिक क्षेत्र विस्तार करने की आवश्यकता है जिससे कृत्रिम रासायनिक पोषक तत्वों के खपत को कम कर दलहनी फसलों की जड़ों के माध्यम से ही भूमि को प्राकृतिक रूप से पोषक तत्व उपलब्ध कराया जा सके।

दलहनी फसलों का महत्त्व

दलहनी फसलों का भारतीय दशाओं में निम्न महत्त्व है-

1. भारतीय भोजन जो कि मूख्यतया शाकाहारी होता है, में दलहनें प्रोटीन पूर्ति का मुख्य साधन हैं
2. दलहनी फसलें आवश्यक अमीनों अम्लों जो कि जीवों की शारीरिक संगठन के लिए अद्वितीय महत्व रखता है, की पूर्ति का मुख्य साधन है।
3. दलहनी फसलें दाल की पूर्ति के साथ-साथ हरी फलियाँ एवं पत्तियाँ सब्जी के रूप में प्रयोग की जाती है।
4. फसलों के हरे पौधों को पशुओं के लिए सर्वोत्तम चारा माना जाता है।
5. दलहनों के पोधे फैलकर बढ़ते हैं जिसके कारण वे मृदा के अपरदन को कम करने में सहायक होते है।
6. इनमे नत्रजन स्थिरीकरण के नैसर्गिक गुण के कारण वे वायुमण्डल की नत्रजन को स्थिर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती है।
7. इनकी मूसला जड़ प्रणाली के कारण ये न्यून वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी उत्पादित की जा सकती है।
8. दलहनी फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अतिरिक्त फॉस्फोरस व खनिज लवण भी पर्याप्त मात्रा में होने के कारण ये पशुओं के लिए महत्त्वपूर्ण चारा है।
9. दलहनी फसलों को हरी खाद के रूप में प्रयोग करके मृदा की उर्वरता को बढ़ाया जा सकता है।
10. दालों के अतिरिक्त इनका उपयोग मिठाइयाँ, पकौड़ी, नमकीन, बेसन, पापड़ आदि बनाने में किया जाता है।

दलहन उत्पादन में बाधाएँ

आदिकाल से ही दलहनों का भारतीय भोजन में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है तथापि भारत में दाल उत्पादकता अन्य विकसित देशों की अपेक्षा आधी से भी कम है, जिसके निम्न कारण हैं-

1. जलवायु व भूमि सम्बन्धी विसंगतिया-

दालें जलवायु के प्रति अतिसंवेदनशील फसले हैं। सूखा, पाला, बाढ़ आदि का दलहनों पर काफी प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है। भारत में आज भी 900 से अधिक दलहन उत्पादन क्षेत्र वर्षाधीन है जिसके कारण औसत उत्पादकता कम है। राजस्थान में पाले व सूखे के प्रकोप के कारण फसल की उत्पादकता काफी प्रभावित होती है। साधारणतया किसान दलहन फसलों को कम उर्वरता वाली, बंजर भूमियों तथा लवणीयता, मृदा कटाव एवं जलमग्नता आदि दोषों से युक्त भूमि में उगाता है फलस्वरूप दलहन उत्पादकता बाधित होती है।

2. उच्च उपज वाली प्रजातियों का अभाव-

दलहनें आदिकाल से ही सीमान्त क्षेत्रों में उगाई जाती रही हैं तथा आज भी मुख्य व्यावसायिक फसलों की श्रृंखला में न आने के कारण अनुसंधानात्मक स्तर पर भी दलहनों पर धान्य फसलों की अपेक्षा कम ध्यान दिया गया है जिसके कारण उच्च गुणवत्ता वाली लागत संवेदी प्रजातियों उपलब्ध नहीं हो पाई हैं।

3. अवैज्ञानिक प्रबन्ध स्तर

(क) उचित फसल प्रबन्धन न हो पाना-

सीमांत क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक दशा कमजोर होने के कारण वे उर्वरक, पीड़कनाशी आदि का समयानुसार तथा संतुलित प्रयोग नहीं कर पाते हैं तथा उक्त क्षेत्रों में सिंचाई की भी उचित व्यवस्था न उपलब्ध होने के कारण फसलों में जल, खरपतवार एवं कीट-व्याधि प्रबन्धन अनुकुल नहीं हो पाता जिसके कारण उत्पादकता कम है।

(ख) राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्ध की अनुपलब्धता-

सभी दलहनी फसलों के लिए राइजोबियम जीवाणु उपलब्ध नहीं हो पाए हैं। इसके साथ ही राइजोबियम जीवाणुओं के कल्चर हेतु उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण संवर्धन प्रभावहीन हो जाते हैं तथा वांछित परिणाम नहीं मिल पाते है।

(ग) उचित समय पर बुवाई का न होना-

सिंचाई सुविधा उपलब्ध न होने के कारण प्रायः फसल की अगेती बुवाई करनी पड़ती है जिसके कारण वानस्पतिक बढ़वार ज्यादा होने के कारण उपज घट जाती है।

(घ) दोषयुक्त बुवाई विधि- दलहनी फसलों (मुख्यतया मोठ) की बुवाई प्रायः छिटकवाँ की जाती है। जिसके कारण फसल अंकुरण ठीक नहीं होता है। साथ ही खरपतवार नियंत्रण में भी व्यवधान होता है तथा उपज अपेक्षाकृत कम प्राप्त होती है।

(ङ) कीट एवं व्याधि प्रबंधन न होना-

दलहनों में प्रोटीन अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक होने के कारण वे सरस व सुपाच्य होते हैं जिसके कारण दलहनी फसलों पर कीट व बिमारियों का प्रकोप ज्यादा होता है। सीमान्त क्षेत्रों के कृषकों की आर्थिक तंगी. अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण समय पर कीट एवं व्याधि नियंत्रण की समुचित व्यवस्था न हो पाने के कारण कम उपज प्राप्त होती है।

4. वानस्पतिक कारण

(क) असीमित वृद्धि-

दलहनी पौधों की असीमित वृद्धि की प्रकृति के कारण पौधे के अग्रभाग की वृद्धि उसके जीवन पर्यन्त होती रहती है तथा पत्तियों के कक्षों में फूल व फलियों का निर्माण भी होता रहता है जिसके कारण नीचे वाली फली के पकने के समय ऊपरवाली फली अविकसित रहती हैं तथा ऊपरवाली फलियों के पकने की प्रतीक्षा करने पर नीचे वाली फलियाँ झड़ जाती हैं।

(ख) प्रकाश एवं ताप के प्रति संवेदनशीलता-

दलहनी पौधे प्रकाश एवं ताप के प्रति संवेदनशील होते है अर्थात् इनमें पुष्पन की क्रिया मौसम पर आधारित होती है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में फसल की बुवाई संचित नमी का उपयोग करने के लिए प्रायःजल्दी कर दी जाती है। जिसके कारण वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है क्योंकि पौधे प्रकाश संवेदी होने के कारण उसी समय फलन करते हैं जब उनके लिए उपयुक्त समय मिलता है।

इस अतिवृद्धि के कारण पौधों में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है परिणामस्वरूप फूल व फलियाँ कम बनती हैं। इसके विपरीत विलम्ब से बुवाई करने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि कम हो पाती है क्योंकि उपयुक्त मौसम मिलते ही पौधों में फूल निकलना प्रारंभ हो जाते हैं। इस प्रकार दोनों ही परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती है।

5. भण्डारण की अपर्याप्त सुविधा-

दलहनों में प्रोटीन पदार्थ की अधिकता होने के कारण भण्डारण के समय भी इनमें कीटों का अधिक प्रकोप होता है जिसके कारण भण्डारण के दौरान काफी क्षति हो जाती है।

दलहन उत्पादन बढ़ाने के सुझाव

दलहन उत्पादन बढ़ाने हेतु निम्न सुझाव अपनाए जाने चाहिए-

1. सीमान्त क्षेत्रों के किसानों हेतु सरकार द्वारा समय पर खाद, उर्वरक एवं बीज उपलब्ध कराया जाना चाहिए जिससे कि फसल की समय से बुवाई की जा सके तथा यथोचित उर्वरक प्रबन्ध किया जा सके।
2. प्रकाश एवं ताप असंवेदी प्रजातियों का विकास किया जाना चाहिए जिससे समस्त फलियों की एक साथ कटाई की जा सके।
3. कीट-व्याधि प्रबंधन के प्रति सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए, जिससे कि कीट एवं व्याधि नियंत्रण समय से किया जा सके।
4. उच्च उपज वाली जलवायु अनुसार प्रजातियों के विकास पर जोर दिया जाना चाहिए।
5. सीमान्त क्षेत्रों में भी सिंचाई सुविधा का विकास किया जाना चाहिए जिससे कि दलहनों की उत्पादकता बढ़ाई जा सके।
6. खाद एवं उर्वरकों की आवश्यक मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के बाद किया जाना चाहिए जिससे उवरक संसाधनों का अनावश्यक व अंधाधुंध उपयोग न हो।
7. फसलोत्पादन वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए।
8. राइजोबियम जीवाणुओं के प्रभावी संवर्ध उत्पादन एवं भण्डारण सुविधा के विकास पर जोर दिया जाये ताकि दलहनों में नत्रजन स्थिरीकरण हो सके।
9. बुवाई कतारों में व समय पर करे जिससे खरपतवार प्रबंधन में भी सुगमता रहे।

अधिक मूल्यवान फसलों के साथ चुने गये फसल चक्रों में मुख्य दलहनी फसलें, चना, मात्र, मसूर, अरहर, उर्द, मूंग, लोबिया, राजमा, आदि का समावेश जरुरी हो गया है। यदि प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ानी है तो दलहनों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए उन्नतशील प्रजातियां और उनकी उन्नतशील कृषि विधियों का विकास करना होगा।


Authors:
सुमित्रा देवी बम्बोरिया1, शांति देवी बम्बोरिया2 व भोलाराम कुड़ी3
1विषय वस्तु विशेषज्ञ (शस्य विज्ञान), कृषि विज्ञान केंद्र, मौलासर (राजस्थान)
2कृषि शोध वैज्ञानिक, भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थालन, लुधियाना
3विषय वस्तु विशेषज्ञ ( कृषि मौसम विज्ञान), कृषि विज्ञान केंद्र, पाली (राजस्थान)

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