Cultivation of Mint to earn more Profits

वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में जहां एक ओर वैश्विक कृषि व्यवसायीकरण की ओर गतिशील दिखाई देती है। वहीं दूसरी भारतीय कृषि आज भी परंपरागत खेती को अपने युवा कांधों व तकनीकी दिमाग पर बोझ बनाये बैठी है। वर्तमान समय परंपरागत खेती से हटकर बाजार मांग के अनुसार फसल उत्पादन का है जहां नये कृषि उत्पादों का उत्पादन कर किसान अपने आय को उच्चतम स्तर तक पहुंचा सके।

पुदीना लेमिएसी कुल से संबंधित एक बारह मासी खुशबुदार अत: भुस्वारी प्रकार का पौधा है। पुदीने की खेती मुख्यत: उनकी हरी, ताजा खुशबूदार पत्तिायों के लिये की जाती है।

गांव-घरों में पनियारी के पास जहां पानी नियमित रूप से लगता है पुदीना लगाया जा सकता है। शहरों मेें लोग अपनी छतों पर पुदीनें को गमलों में लगाकर रखते हैं तो कहीं महानगरों में कई लोग अपनी खिड़कियों तथा रोशनदानों में पुदीना लगे गमले रखते है जिससे उनकी पुदीनें की हरी ताजी पत्तिायां भी मिल जाती है। तथा घरों में हवा के साथ पुदीने की भिनी -भिनी खुशबू भी फैल जाती है।

पुदीने की खेती को लेकर पिछले कई वर्षों से किसान उत्सुक दिखाई देते है, ओर हो वे भी क्यों नहीं, पुदीना है ही कुछ ऐसा कि इसका नाम सुनकर ही हम सबके मुंह में पानी भर आता है। पुदीने का आम तौर पर हम चटनी बनाने के लिये उपयोग करते है, पर इसके साथ-साथ पुदीने के अन्य औषधीय उपयोग भी है।

पुदीने से निकाले जाने वाले सुगंधित तेल व अन्य घटकों का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को सुगंधित करने, टॉफी तथा च्वींगम बनाने, पान के मसालों को सुगंधित बनाने, खांसी-जुकाम सर दर्द की औषधियां बनाने, उच्चस्तर की शराब को सुगंधित बनाने तथा ग्रीष्मकाल के दौरान लू से बचने के पेय पदार्थ बनाने में पुदीना बहुत उपयोगी होता है।

आज भारत वर्ष पुदीना उत्पादन के क्षेत्र में सबसे आगे है। आज भारत वर्ष में पुदीना के निर्यात के फल स्वरूप लगभग 800 करोड़ रूपये की विदेशी मुद्रा हरवर्षआती है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पुदीने के तेल तथा अन्य घटकों की भारी मांग है।

उक्त व्यक्तव्यो को ध्यान में रखते हुये तथा इसकी महत्वत्ता को समझ कर पोदीना उत्पादन की उन्नत तकनीक को इस लेख के माध्यम से किसान भाईयों तक विस्तारित करने का प्रयास किया जा रहा है जिसकी मदद से वे पुदीने की वैज्ञानिक खेती आसानी से कर सके। 

पुदीना उगाने के लि‍ए जलवायु: -

पुदीने की खेती कई तरह के जलवायु में की जा सकती है। यह शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण जलवायु में आसानी सेल गाया जा सकता है।इसे सिंचित तथा असिंचित दोनों दशाओं में लगाया जा सकता है। परंतु सिंचित अवस्था में इसकी उपज असिंचित की अपेक्षा ज्यादा प्राप्त होती है।

पुदीना उगाने के लि‍ए भूमि/ मिट्टी:-

सिंचित फसल के रूप में पुदीना लगभग सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है। बशर्तें उसमें जैविक खाद का उपयोग उपयुक्त मात्रा में किया गया हो उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी पुदीना की खेती के लिये सर्वोंत्ताम मानी जातीहै। जिन खेतों में मिट्टी की पी.एच.6-7 तक हो वे खेत पुदीना की खेती के लिए उपयुक्त माने जातेहै।

पुदीने के प्रकार:-

आज कल पुदीने के प्रमुखत: दो प्रजातियां प्रचलन में है

  1. मेन्था पिपरीटा (विलायती पुदीना)
  2. मेन्था आर्वेन्सिस (जापानी पुदीना)

भारत में सामान्यत: उगायी जाने वाली प्रजाती ''जापानी पुदीना'' है। यह मुख्यत: उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में उगायी जाती है।

पुदीने की उन्नत किस्में :-

एम.ए.एस.1, कोसी, कुशाल, सक्ष्म, गौमती (एच.वाई.77), शिवालिक, हिमालय, एल-11813, संकर 77, ई.सी.41911  आदि मुख्यतया उगायी जाने वाली पुदीने की उन्नत किस्में है। 

पुदीने में खाद एवं उर्वरक:-

प्रति हैक्टेयर पुदीने की खेती के लिए 200-500 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद तथा 120-135 : 50-60 : 50-60 किलोग्राम एन.पी.के. का उपयोग करना चाहिए। 

पुदीने की पौध रोपण/ बुवाई-

पुदीने की फसल के लिये अंत: भुस्तारी (सकर अथवा स्टोलॉन) का उपयोग किया जाता है। एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिये लगभग 200-250 किलोग्राम जड़ों की आवश्यकता होती है। पुदीने की रोपाई का उपयुक्त समय जनवरी-फरवरी माना जाता है परंतु अप्रेल मई में भी इसकी रोपाई की जा सकती है।

अगर रोपाई फरवरी के महीने में की जाये तो मात्र 2-3 सप्ताहों में इनकी जडें फूट आती है ओर आसानी से जल्दी ही पूरा पौधा फैल जाता हैं।

पुदीना लगाने के लिए इसकी मिट्टी के अंदर की भुस्तारिकाओं को 10-15 से.मी. शाखाओं को जमीन में दबा दिया जाता है। रोपण के दौरान यह अवश्य ध्यान रखे कि भुस्तारिकायें जमीन में 5 से.मी. से अधिक गहरी ना चली जाये। 

सिंचाई एवं जल निकास-

शुष्क क्षेत्रों मेें उगाये जाने वाले पुदीना से समय-समय पर तथा उचित मात्रा में सिंचाई की जानी चाहिए क्योंकि पत्तिायों की उपज तथा तेल की गुणवत्ता के लिये सिंचाई का बहुत महत्व है। रोपाई के बादहर 10-12 दिनों के अंतराल के बाद सिंचाई करनी चाहिए। बरसात के दिनों में इसके लिये खेतों में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए अन्यथा पौधा अधिक पानी की मात्रा के कारण नष्ट हो जाता है। 

खरपतवार नियंत्रण-

पुदीने की फसल में खरपतवार के नियंत्रण के लिये कुल तीन बार निराई की जानी चाहिए। प्रथम निराई रोपण के करीब एक माह बाद द्वितीय करीब दो माह बाद तथा तृतीय कटाई के करीब 15 दिनाें बाद की जानी चाहिये। खरपतवार नियंत्रण के लिये खरपतवार नाशी सामान जैसे की पेन्डीमिथेलॉन (स्टाम्प) (1 किलोग्राम 100 लीटरपानी के साथ घोल बनाकर) का उपयोग भी किया जा सकता है। 

कीट एवं रोग प्रबंधन-

  • रोयेदार सुण्डी तथा पत्ताी रोलर कीट के प्रकोप की रोकथाम के लिये 300-400 मिली. क्यूनालफॉस प्रति हैक्टेयर 625 लीटर पानी की दर से छिडकाव करे। मैलाथियॉन 50 ई.सी. 7 मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव भी इस कीट के नियत्रंण के लिये उपयुक्त है।
  • लालडी (कद्दू का लाल भृंग) की रोकथाम के लिये मैलोथियॉन 50 ई.सी. 1 मिली प्रति लीटर पानी का छिडकाव करें।
  • कटुआ कीट (कटवर्म) तथा दीमक की रोकथाम के लिये अंतिम जुताई के समय फॉरेट दाने दार 10 जी रसायन 20 किग्राप्रति हैक्टे0 की दर से खेत की मिट्टी में मिलाये।
  • भुस्तारी सडन तथा जड गलन रोगों की रोकथाम के लिये रोपण के समय भुस्वारिका ओंको केप्टान (25 प्रतिशत) अथवा बेनलेट (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करना चाहिए।
  • रतुआ तथा पत्ताी धब्बा रोगों की रोकथाम के लिये ब्लीटॉक्स (3 प्रतिशत) अथवा डाइथेन एम-45 (0.2 प्रतिशत) का छिडकाव करें।
  • चूर्णिल आसिता रोग के प्रबंधन के लिये घुलनशील गंधक अथवा कैराथन (25 प्रतिशत) का उपयोग करें।

तुडाई/ कटाई एवं उपज:-

पुदीनें की प्रथम कटाई रोपण के करीब 100-120 दिनों बाद (जून के महीने में) की जाती है। दूसरी कटाई पहली कटाई के 70-80 दिनों बाद (अक्टूबर के महीने में) की जानी चाहिए। अगर इसकी कटाई सही समय पर ना की जाये तो इसकी उपज तथा तेल की गुणवत्ताा पर विपरीत प्रभाव पडता है। एक साल में दो बार कटाई के फलस्वरूप एक हैक्टेयर से करीब 20-25 टन पुदीनें पत्तिायाें की उपज होती है, जिनसे प्रति वर्ष करीब 250 कि.ग्रा. तेल प्राप्त होता है।


Authors:

गजानंद नागल1, लीज़ा राठौड़2, राहुल भारद्वाज1

1विद्यावाचस्पति शोध छात्र, राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान, दुर्गापुरा - जयपुर

2स्नातकोत्तर शोध छात्रा, हिमाचल प्रदेष कृषि विष्वविद्यालय, पालमपुर

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