Goad Plague or Peste des Petits Ruminants (PPR) epidemic disease problem and management in Sheeps and Goats

भारत में पशुपालकों का ध्यान छोटे जानवरों की तरफ जा रहा है. छोटे पशुओं को पालने में लागत काफी कम और मुनाफा ज्यादा होने की गुंजाईश कई गुणा ज्यादा है. बकरी की कई ऐसी प्रजातियां हैं जिस पर रोज़ाना 6 -7 रुपये खर्च आता है और इससे साल में दस हज़ार तक की कमाई हो जाती है. इसी कारण यह गरीब पशुपालकों की आजीविका का साधन है.

बकरी पालन में जोखित और दूसरो बिजेनस से काफी कम है और गोट मीट की मांग भारत में हर जगह लगातार बढ़ती ही जा रही है। बकरे भारत में मांस का मुख्‍य स्रोत हैं। बकरे का मांस पसंदीदा मांसों में से एक है तथा इसकी घरेलू मांग बहुत अधिक है।

अच्‍छी आर्थिक संभावनाओं के कारण बकरी पालन के व्यावसायिक उत्‍पादन ने पिछले कुछ वर्षों से गति पकड़ ली है। बकरी तथा उसके श्रेष्‍ठ आर्थिक लाभ वाले उत्‍पादों की उच्‍च मांग के कारण अनेक प्रगतिशील किसान और शिक्षित युवा व्यावसायिक पैमाने पर बकरी पालन उद्योग को अपनाने की दिशा में प्रेरित हुए हैं।

लगातार बढ रहे दूषित वातावरण के कारण पशुओं मे बीमारियां बढ़ रही हैं। भेड़ों और बकरियों में पी.पी.आर की समस्या माहमारी का रूप ले रही है। संक्रामक बिमारियों में पी.पी.आर का प्रकोप तथा इनसे पशुओ की ज्यादा मृत्यु दर किसानों एवं पशुपालकों के लिए बहुत बड़ी समस्या बना हुआ है. इस बीमारी को कई नामों से जाना जाता है, जैसे: काटा, मुख शोथ निमोनिया, गोट कटारल फीवर, बकरी प्लेग आदि।

किस प्रकार होता है रोग उत्पन :

यह संक्रमण रोग भेड़- बकरियों में ज्यादा फैलता है. छोटे बच्चे जल्दी इसकी चपेट में आते हैं. यह संक्रमण रोगी पशु से स्वस्थ पशु में प्रवेश कर लेता है. जिस कारण इसकी संख्या बढ़ती जा रही है. यह रोग पशुओं के चारे-दाने, भोजन के बर्तन के संपर्क में आने से फैलता है.

इस महामारी के लक्षण :

1. इस रोग में भेड़ - बकरियों को तेज़ बुखार आता है.
2. मुँह और जीब में छाले हो जाते हैं जिस कारण उनसे चारा तक नहीं खाया जाता है.
3. दस्त एवं निमोनियां के लक्षण उत्पन्न हो जाते है. अधिक मात्रा में दस्त होने की वजह से शरीर में पानी की कमी हो जाती है जिस कारण उनकी चमड़ी चिपकी सी लगती है.
4. रोग ग्रस्त बकरी अपना खाना पीना बिल्कुल कम कर देती है.
5. रोगी पशु के नाक, आँखों, और मल में बहुत अधिक मात्रा में पी पी आर विषाणु तीर्वगति से बढ़ने लगते हैं.

इस रोग के निदान :

1. एलिसा परिक्षण द्वारा विषाणु का पता लगाकर
2. विषाणु के पृथ्‍कीकरण एवं पहचान करके 

रोग से बचाव एवं रोकथाम के उपाए :

  • बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से दूर रखे ताकि उनका रोग स्वस्थ पशुओं तक न पहुंच पाएं.
  • नए खरीदे पशु की देख-भाल कम से कम 3 हफ्ते तक अलग रखकर करें.
  • टीकाकरण जरूर करवाएं इस बीमारी से बचने के लिए ,क्योंकि यह टीका मेमनों को 4-6  माह की उम्र में लगवाना चाहिए

रोग सम्बंधित जरूरी बातें :

  • नज़दीकी पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें.
  • जितना जल्दी हो सके इस रोग से मरे पशुओं को दूर ज़मीन में गाड़े ताकि उनके शरीर के विषाणु उड़ कर दूसरे पशुओं को हानि न पहुंचा सके.
  • बीमार पशुओं को बाजार में बेचने न ले जायें.
  • बीमार पशुओं को चरने के लिए बाहर न भेजें.
  • पशुचिकित्सक की देख-रेख में खून के नमूने और मृत पशुओं के फेफडों, लसिका ग्रंथियां, तिल्ली एवं आंत के नमूने बर्फ पर दस प्रतिशत फार्मलीन में रखकर नैदानिक पुष्टिकरण हेतु प्रयोगशाला में भेजें.

Authors:

सुशीला चौधरी, विजय लक्ष्मी यादव, और सरोज कुमारी यादव

विद्यावाचस्पति छात्रा, राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान, दुर्गापुरा, जयपुर

Email: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

New articles