Animal feed management in rainy and autumn season

हमारे भारत में पशुपालन कृषि का एक अभिन्न हिस्सा है और कृषि एवम् पशुपालन एक दूसरे के पूरक है । पशु पालन में पोषण व आहार पर प्रमुख रूप से 50-60 प्रतिशत खर्चा होता है और पोषण व आहार प्रमुखतः खेती/ कृषि से ही आता है

पशु पोषण व आहार पशुपालन का एक ऐसा पहलू है जिसमें संतुलन रखने से पशुओं का रखरखाव एवम् उत्पादन सीधे तौर पर प्रभावित होता है।

मौसम के अनुसार पशुओं, मवेशियों का आहार उनकी जरूरतों व मौसमी प्रभावों एवं बीमारियों के अनुसार संतुलित व सुपाच्य होना चाहिए जिससे कि दूध, ऊन व मांस के कम उत्पादन व क्वालिटी में दुष्प्रभाव से बचा जा सके।

गाय, भैंस, भेड़, बकरी का आहारनाल अनेक हिस्सों में बंटा  होता है जिसमें कि पेट के प्रमुख चार हिस्से होते हैं जो कि क्रमश रुमन, रेटीकुलम, ओमेजम, अबोमेजम होते हैं जिसमें व्यस्क पशुओं में रूमन का आकार 2/3 (70प्रतिशत ) तक बड़ा होता है जहां मुख्यत हरे चारे का पाचन होता है जिससे वहां कुछ वी एफ ए (V.F.A.)बनते हैं जो दूध की वसा व मात्रा को प्रभावित करते हैं इसलिए हरे चारे जैसे बरसीम, ज्वार, कासनी, बाजरी का प्रभाव उन वी एफ ए (V.F.A.)  के उत्पादन में अलग अलग होता है जिससे  चारे की मौसम के अनुसार उपज व उत्पादन पशुओं की आहार एवम् आवश्यकता को सीधे तौर पर प्रभावित करती है।

हमारे देश में पशुपालन में किसान मुख्यतः आहार में सुखा व हरा चारा ही देता है जो की मौसम व ऋतु के अनुसार एवं उपलब्धता के अनुसार मुख्यतः बदलता है।

बदलते मौसम के साथ पशुओं के आहार में बदलाव भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आहार व पोषण हमें मौसम के अनुसार सुपाच्यता, उपलब्धता, पोषक तत्व और पर्याप्त उत्पादन देते हैं जिससे कि हम पोषण व आहार की कीमत और लागत को घटा सके ताकि हमें पशुओं के पालन से अधिक लाभ हो सके। जैसे वर्षा ऋतु में हरे चारे की बहुतायत होती है जिससे किसान पशुओं को हरा चारा खिलाता है परंतु वर्षा ऋतु के अंत के साथ आती हुई शरद ऋतु किसान के लिए एक अवसर है जब वह अपने मवेशियों के खान-पान पर ध्यान देकर उनसे शरद ऋतु में भी अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सके।

वर्षा ऋतु में पशुओं को अधिक चारा अचानक से देने से उनमें दस्त की शिकायत होने लगती है क्योंकि आहार में अचानक परिवर्तन पशु के पेट के सूक्ष्मजीवों की क्रियाओं को प्रभावित करता है जिससे कुछ पशुओं में दस्त व अपच की समस्या नजर आती है। इसलिए हमेशा चारा बदलने से पहले उसे थोड़ा-थोड़ा पुराने चारे के साथ ही मिलाकर एवम् धीरे-धीरे मात्रा में वृद्धि करके पशु को खिलाए तथा वर्षा ऋतु में जीव -जंतु, कीड़े- मकोड़े बेहद तेजी से बढ़ते हैं और फफूंद का प्रकोप चरम पर रहता है इसलिए हरा चारा भी गंदा, बदबूदार, कीचड़ वाला न हो क्योंकि यह पशुओं में पेट की बीमारियों का प्रमुख कारण है।

वर्षा ऋतु में बहुतायत हरे चारे को हमें भंडारण करके रखना चाहिए ताकि उसे अगले ऋतु व गर्मी में काम में ले सके इसके लिए हम उसे हे (HAY) या साइलेज (SILAGE) बनाकर भंडारण कर सकते हैं जो कि पशुओं के लिए अभाव के समय में अच्छा तत्वों का स्रोत होता है।

वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु में ज्यादातर पशु (वयस्क और बछड़ी) अपनी पाली के लिए तैयार होने लगते हैं यह ऋतु उनके हीट व प्रजनन की दृष्टि से बेहद अहम है, इस मौसम में उनके खान-पान से उनकी दुग्ध उत्पादन क्षमता, प्रजनन तथा प्रसव के लिए उपयुक्त है। सर्दियों में वयस्क बछड़ियो में अच्छी देखभाल से जल्दी प्रजनन होता है तथा वह अच्छा उत्पादन करती है।

भैंसे, भेड़, बकरी सीजनल पॉलिएस्ट्रस पशु है तो वे ज्यादातर सर्दियों में ही पाली में आती है व गर्भ धारण करती है और दूध उत्पादन करती है।

शरद ऋतु के आगमन के साथ वयस्क और गयाभिन पशुओं के आहार जरूरतें बढ जाती है व हरा चारा एवम् घास कुछ कम होने लगती है इसलिए हमें कुछ बहुवर्षीय चारे जैसे सहजन, आंवला, नीम, जामुन, नेपियर घास, कांटे रहित नागफनी का उत्पादन चाहिए होता है जो कि हमें अचानक से हरे चारे की कमी में चारा उपलब्ध करने में मदद करें।

वर्षा ऋतु व शरद ऋतु में पशुओं की प्यास कम हो जाती है इसलिए हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि पशुओं को साफ पानी हर वक्त उपलब्ध हो ।

पशुओं को पानी हमेशा साफ स्वच्छ व ताजा पिलाये तथा पानी का ताप ज्यादा ठंडा या गर्म ना हो। पशुओं के पानी पीने वाले जलस्रोत की समय समय पर चुने से पुताई करनी चाहिए जिससे पानी के साथ कैल्शियम की उपलब्धता भी पशुओं के लिए बढ़ जाती है तथा ये हानिकारक सूक्ष्मजीवों को भी पनपने से रोकता है।

पशुओं के राशन में 60 प्रतिशत  गीला/हरा चारा तथा 40 प्रतिशत  सुखा चारा होना चाहिए और दाना मिश्रण दुधारू पशुओं जैसे भैंस को 400 ग्राम प्रति लीटर दूध तथा गाय को 300 ग्राम प्रति लीटर देना चाहिए।दाना मिश्रण में बाजरा, मक्का तथा खल का समावेश होना चाहिए।

सर्दियों में शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए पशुओं में ऊर्जा, प्रोटीन व अन्य पोषक तत्वों की जरूरत बढ़ जाती है, सामान्यत देसी पशु को 8-10 किलो आहार की रोजाना जरूरत होती है। हरा चारा में जई, सरसों, चरी, लोबिया, रजका या बरसीम आदि शामिल करें। प्रोटीन के लिए कपास, मूंगफली, तिल या सरसों की खल एवं मूंग मोठ या ग्वार की चूरी देना जरूरी है। दाना मिश्रण में मोटे तौर पर दाने 40 प्रतिशत,  खल 32 प्रतिशत,  चापड़ 25 प्रतिशत, खनिज लवण 2 प्रतिशत  और नमक 1 प्रतिशत  अवश्य शामिल करना चाहिए।

दाना मिश्रण जैसे गेहूं का दलिया, खल, चना, ग्वार, बिनौला आदि को रात को पानी में भिगोकर रखें और सुबह इन्हें पानी में उबाले और ताजा ही पशुओं को खिलाएं।

सर्दियों में उच्च कैलोरी के आहार में विटामिन व खनिज लवण मिलाना चाहिए और नई ब्याही हुई गाय, भैंसों में आहार की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिए। इस मौसम में गुड, तेल, अजवाइन एवं सोंठ को आहार में शामिल करना लाभदायक होता है। इस मौसम में ब्याही हुए पशुओं के नवजात पशुओं की उचित देखभाल करना भी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि नवजात पशुओं में निमोनिया, हाइपोथर्मिया, अतिसार एवम् दस्त होने की प्रबल संभावना रहती है जिससे कि नवजात मृत्यु दर बढ़ जाती है।

सर्दी के मौसम में पशुओं के खान-पान एवं दुग्ध निकालने का समय निश्चित तौर पर एक ही रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त सर्दी में पशुओं को कॉमन कोल्ड, कैल्शियम की कमी होना, गला घोटू, खुरपका मुंहपका, पीपीआर, आंत विषाक्तता एवं भेड़ माता जैसी बीमारियों से पशुओं को बचाने के लिए समय-समय पर टीकाकरण करवाना चाहिए।

सर्दियों में रखरखाव का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। पशुघर में मोटे स्तर का बिछावन अवश्य बिछाना चाहिए तथा खिड़कियों और दरवाजों पर बोरी व टांट के पर्दे अवश्य लगवाएं, जिससे कि बाहर की सर्द हवाएं अंदर ना सके व मौसम के प्रकोप से बचा जा सके।

पशुओं को हरा चारा विशेषकर बरसीम व रिजका के साथ सूखा चारा मिलाकर ही खिलाना चाहिए क्योंकि केवल हरा चारा खिलाने से अफरा तथा अपच होने का डर बना रहता है।

वर्षा ऋतु के अंत में हमेशा कृमि नियंत्रण के लिए पशुओं को समय-समय पर कृमि नाशक दें

एल्बेंडाजोल या पेनाक्युरु आदि उचित मात्रा में खिलाए। पेट में कीड़े / कृमि पशुओं की पशुओं के स्वास्थ्य और उन्हें गर्भधारण में अवरोध पैदा करते हैं क्योंकि कृमि पेट से सभी पोषक आवश्यक पोषक तत्वों को खा जाते हैं जिससे कि शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और इस कमी के कारण हुए उसके पशुओं को REPEAT BREEDING  की समस्या होती है

 


Authors:

डॉ॰ प्रवीण कुमार अग्रवाल, डॉ॰ भारती यादव

पशु पोषण विभाग

स्नातकोत्तर पशु चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (पी.जी.आई.वी.ई.आर, जयपुर)

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