Economic Analysis and Marketing Management of Jute Production

पटसन भारत के पूर्वी व उत्तर राज्यों में उगाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण पर्यावर्णीय अनुकूल रेशा फसल है | इसकी खेती लगभग 8 लाख हेक्टर में लगभग 40 लाख लघु व सीमान्त कृषकों द्वारा की जाती है | पश्चिम बंगाल पटसन के क्षेत्रफल एवं उत्पादन में देश का एक अग्रणी राज्य है | इसके अलावा इसकी खेती बिहार, असम, ओड़ीशा, त्रिपुरा, मेघालय तथा उत्तर प्रदेश में की जाती है |

वर्तमान दशक में नवीनतम कृषि तकनीकों एवं क्षेत्रफल विस्तार के कारण इसकी राष्ट्रीय उत्पादकता 23.0 कु॰/हे॰ तथा वर्ष 2012-2013 में लगभग 103.4 लाख बेल का उत्पादन हुआ है | विभिन्न कारणों से पटसन उत्पादक राज्यों में  इसकी  औसत उत्पादकता में कृषकों के स्तर पर व्यापक अंतर पाया जाता है |  इसके अनेक कारण हैं, जो निम्नलिखित है:

  • छोटी और सीमान्त जोत
  • बिखरी हुई जोत
  • उत्तम गुणवत्ता वाले बीज की अनुपलब्धता
  • अन्य आगतों का अभाव
  • सही उत्पादन तकनीकी ज्ञान का अभाव
  • उपयुक्त प्रसार तंत्र का अभाव
  • पर्याप्त निवेश की कमी एवं
  • श्रमिकों की अनुपलब्धता

इनमे से अधिकतर कारकों का निष्पादन कृषकों के सीमा से बाहर है | इस स्थिति में यह सवाल उठता है कि सीमित संसाधन से अधिकतम लाभ की प्राप्ति किस प्रकार हो ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही सरल है | कृषकों को उन तकनीकों को अपनाना चाहिए, जिससे वह अपनी उत्पादकता एवं लाभ में बढ़ोत्तरी कर सके |

यह तकनीक दो प्रकार की होती है, जिसे सुविधा के हिसाब से–पहला व्यक्तिगत तथा दूसरा सामुदायिक स्तर पर अपनाया जा सकता है | उत्तम गुणवत्ता वाले बीज, संतुलित पोषक तत्वों का प्रयोग आदि व्यक्तिगत स्तर पर अपनाए जाने वाले तकनीक के उदाहरण हैं |

समेकित कीट एवं व्याधि प्रबन्धन सामुदायिक स्तर पर अपनाए जाने वाले तकनीक के उदाहरण हैं | पटसन उत्पादक कृषक इन तकनीकों का मूल्यांकन विधि व परिणाम प्रदर्शन के द्वारा कर सकते हैं | विधि प्रदर्शन में मुख्य ज़ोर तरीका पर होता है |

साधारणतया इस में एकल अभ्यास/प्रयोग का प्रदर्शन किया जाता है | कीट प्रबन्धन के लिए कीटनाशी का छिड़काव इस प्रदर्शन का एक उदाहरण है | परिणाम प्रदर्शन में मुख्य ज़ोर प्रयोग के परिणाम को जानने/बताने में होता है |

इस में एक या एक से अधिक अभ्यास/ प्रयोग का उपयोग होता है  | अभ्यास/ प्रयोग के आधार पर इसकी अवधि कम या ज्यादा हो सकती है | पटसन के पौधों में तना गलन के नियंत्रण के लिए कवकनाशी का छिड़काव का असर कम समय में देखा जा सकता है | फसल में संतुलित उर्वरक के  प्रयोग का असर फसल कटाई के बाद(लंबे समय के बाद) ही जाना जा सकता है | 

अब प्रश्न उठता है कि पटसन उत्पादन  के लागत खर्च कम करने के लिए कृषक क्या करें जिससे कि उसे अधिकतम उत्पादन की प्राप्ति हो | इस के लिए निम्नलिखित तथ्यों की जानकारी होनी चाहिए:

  • पटसन उत्पादन के लिए जरूरी निवेश की जानकारी
  • उन्नत किस्म के बीज, उसकी उपलब्धता व मूल्य की जानकारी
  • बाजार में पटसन रेशों कि आगतों की उपलब्धता एवं कीमत की जानकारी
  • अन्य आगतों की उपलब्धता व कीमत की जानकारी
  • फसल तैयार होने के बाद उसका विपणन प्रबन्धन एवं
  • दक्षता मापने के लिए सही साधन-सरल शब्द में यह उत्पादन एवं आगत का एक अनुपात है | विशुद्ध लागत या आय या दोनों के ही आधार पर दक्षता का  निर्धारण किया जा सकता है | बुनियादी तौर पर भूमि की उर्वरता, संसाधन की उपलब्धता, कृषकों का सामर्थ्य, प्रचलित बाज़ार भाव (मूल्य),सरकारी नीति आदि इसे प्रभावित करते हैं |

विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि वैज्ञानिक पद्धति से खेती करने में प्रारम्भिक निवेश पारम्परिक पद्धति की तुलना में अधिक होती है | परंतु, अधिक पैदावार होने के कारण इससे होने वाले आमदनी प्रारम्भिक निवेश की तुलना में ज्यादा होती है |

इस विधि से प्राप्त उपज की गुणवत्ता भी बेहतर होती है, जिसके कारण अधिक आय होती है  | उन्नत पद्धति से नियमित उत्पादन करने से फसलों की उत्पादकता एवं कृषकों के दक्षता में बढ़ोतरी होती है | औसतन, पारम्परिक पद्धति से पटसन के निराई व कटाई (सड़न व रेशा निष्कर्षण) में इसके कुल उत्पादन लागत (लगभग 60,000 रु॰/हे॰ ) का लगभग 25% एवं 45% खर्च होता है | उन्नत तकनीकों (शाकनाशी/ क्राइजैफ़ नेल वीडर, पाउडर आधारित सूक्ष्मजीवी मिश्रण, विलम्बित अवस्था में रेशा निष्कर्षण के समय जल उपलधता की समस्या होने पर पोलिथीन स्तरीकृत माइक्रोपौंड का उपयोग) को अपना कर कृषक अपने उत्पादन लागत में 10,000-20,000 रु॰/हे॰ तक की कमी ला सकते हैं |

खेत में खरपतवार के संक्रमण अनुसार अंकुरण पूर्व या अंकुरण पश्चात शाकनाशी का प्रयोग किया जा सकता है | क्राइजैफ़ नेल वीडर जो कि सेंट्रल रिसर्च इन्स्टीच्युट फार जूट एंड एलाइड फाइबर्स, बैरकपुर, कोलकाता  द्वारा विकसित किया गया है, मिश्रित प्रकार के खरपतवार के रोकथाम में काफी प्रभावी है | इससे मानवीय श्रम पर होने वाले खर्च में काफी बचत होती है | पाउडर आधारित सूक्ष्मजीवी मिश्रण के प्रयोग से रेशा के गुणवत्ता में सुधार होता है, जिसकी वजह से कृषकों को कम से कम  5,000-6,000  रु॰/हे॰ अधिक की आमदनी संभव है |

पोलिथीन स्तरीकृत माइक्रोपौंड में ( जब वर्षा न हो या प्रचुर मात्र में जल न हो) भूमिगत जल का भराव कर प्रकृतिक दशा में ही पटसन के बण्डलों को जल्द सड़ाया जा सकता है | इससे ढुलाई खर्च (पटसन सड़ाने के लिए) में 7,000 रु॰/हे॰ तक की बचत होती है |

कार्य समाप्ति के बाद माइक्रोपौंड में वर्षा जल का संग्रहण कर इसका उपयोग अधिक मूल्य वाले फसल में भी किया जा सकता है | कृषकों को इन सभी पद्धति  का आकलन करने के लिए फार्म रिकार्ड्स (लेखा विवरण) रखना होगा | इसमें होने वाले निवेश के अलावा फसल को उगाने में आई लागत एवं कटाई के बाद के प्रबन्धन का पूरा विवरण रखना होगा |

यदि एक कृषक परम्परागत एवं वैज्ञानिक खेती से पैदा किए गए फसलों का विवरण रखता है, तो वह स्वयं दोनों विधि के उत्पादकता का तुलनात्मक अध्ययन कर सकता है | हालाँकि अशिक्षा, व्यावसायिक जागरुकता का अभाव, समय की कमी, खेती का कार्य दुष्कर एवं थकानेवाला आदि के कारण अधिकतर कृषक फार्म रिकार्ड्स नहीं रखते हैं | बेहतर प्रबन्धन के लिए कृषकों को खुद ही पहल करने के साथ-साथ रिकार्ड्स रखने में भी रुचि दिखानी चाहिए |

पटसन विपणन प्रबन्धन:   

खाद्यान्न फसलों की तुलना में पटसन का मूल्य बाजार की माँग पर आश्रित होती  है | पटसन विपणन में अनेक गतिविधियाँ जैसे संग्रहण, परिवहन व उसका वितरण शामिल होती है | इसमें उत्पाद का प्रवाह मुख्यतः चार स्तरों (ग्राम/कृषक का घर, प्राथमिक बाज़ार/हाट, द्वीतयक बाज़ार और टर्मिनल/निर्यात बाज़ार) होता है |

इसका मुख्य उपभोक्ता पटसन मिल है | सभी स्तरों पर बिचौलियों (फुटकर क्रेता, थोक क्रेता, ब्रोकर, कमीशन एजेंट, व्यापारी, मिल अभिकर्ता/एजेंट, धनी किसान आदि) सक्रिय रहते हैं, जो पटसन विपणन में अहम भूमिका निभाते हैं | व्यवसाय के आकार के अनुरूप बिचौलियों की संख्या परिवर्तनशील होती है |

पटसन रेशा मूल्य का निर्धारण इसके ग्रेड पर भी निर्भर  करता है | आई॰ एस॰ 271-1975 के अनुरूप रेशा शक्ति के आधार पर (सादा 17.4-29.5 ग्रा॰/टेक्स तथा तोषा 14.9-27.0 ग्रा॰/टेक्स ) पटसन की आठ ग्रेड (श्रेणी), टी॰ डी॰ 1-8 होती है |

देश में टी॰ डी॰ 5 श्रेणी वाले पटसन का अधिकतम उत्पादन (करीब 40 %) होता है | भारत सरकार इसी श्रेणी के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है | टी॰ डी॰ 1-4 श्रेणी तक रेशा की गुणवत्ता उत्तम (कुल उत्पादन का लगभग 35%) होती है | केवल अनुकूल परिस्थिति वाले क्षेत्रों मे उत्तम गुणवत्ता वाले रेशे की उत्पादन होती है | कुल पटसन उत्पादन का करीब 25 % हिस्सा टी॰ डी॰ श्रेणी 6,7 एवं 8 का होता है | 

अनुकूल मौसम में अत्यधिक पैदावार होने पर पटसन मिलों द्वारा न्यूनतम बाजार भाव पर पटसन रेशा खरीद की प्राथमिकता होती है | इसके विपरीत, प्रतिकूल मौसम में कम उत्पादन होने पर पटसन मिलों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत पर कच्चे माल की खरीद की जाती है |

दोनों ही परिस्थितियों में पटसन उत्पादक उत्पाद का अधिकतम मूल्य पाने से वंचित रह जाते हैं | सामान्यतया वे अल्प पूंजी वाले होते हैं तथा उनकी जोखिम उठाने की क्षमता भी कम होती है | यह क्षमता उपज, उत्पाद के मूल्य तथा आगतों की अनुपलब्धता से जुड़ी होती हैं |

कृषकों की  प्राथमिकता रेशा निष्कर्षण के बाद उसे जल्द से जल्द बेच कर घरेलू अवश्यकताओं की पूर्ति तथा अगली फसल की शस्य क्रिया शुरू करने की होती है | रेशा फसल के स्थूल व ज्वलनशील प्रकृति के कारण कृषक इसके संग्रहण का जोखिम भी नहीं ले सकते हैं |

इस तरह स्थान एवं समय की कमी के कारण रेशा निष्कर्षण के बाद तुरंत ही एक उत्पादक कृषक अपने उत्पादन का करीब 95% हिस्से की बिक्री विक्रय अधिशेष के रूप में कर देते हैं | उनके द्वारा  बेचे गए रेशे की श्रेणी समान्यतया टी॰ डी॰ 6-7 होती है | इसका बाज़ार भाव घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (टी॰ डी॰ 5) से भी कम होता है |

कृषकों द्वारा रेशा फसल की बिक्री अक्टूबर-नवम्बर (कटाई के 4-5 माह के अंदर) पूरी कर ली जाती है | इसके विपणन में बड़ी संख्या में बिचौलिये शामिल होते हैं | वे पटसन उत्पादकों से उत्पाद खरीद कर संग्रह करते हैं तथा साल भर ऊँचे दर पर इसे पटसन मिल को बेच कर मुनाफा कमाते हैं |

इस स्थिति में एक कृषक को अपने फसल प्रबन्धन एवं उत्पादन के अलावा बाजार प्रबन्धन में भी महारथ हासिल होनी चाहिए | किसी भी प्रबन्धन के लिए एक कृषक को बहुत सारी जानकारियों  की जरूरत होती है |

इनमें सबसे प्रमुख बाज़ार भाव (मूल्य) तथा आगत होती है | इस जानकारी के द्वारा पहले से मालूम प्रवृत्ति के आधार पर कृषक अपनी फसल के उत्पादन का सही समय निर्धारित कर सकते हैं जिससे उन्हे अधिक मुनाफा हो |

इसके अलावा उन्हे सस्ती ढुलाई की जानकारी भी  होनी चाहिए ताकि अपनी फसल की ढुलाई सही समय पर सबसे सस्ती दरों में कर सकें | साथ ही उसे यह भी जानकारी होनी चाहिए कि यदि वह गुणवत्ता के आधार पर वह उत्पाद बेचे  तो उसे क्या लाभ होगा और उसका खरीददार कौन होगा ? किस बाज़ार सूत्र में अपना उत्पाद बेचे कि उसे अधिकतम लाभ हो इसकी भी जानकारी उसे होनी चाहिए | इन सारी  जानकारियों को प्राप्त करने में उन्हें  बहुत मेहनत लगेगी एवं उनका बहुत समय विपणन के कार्य मे लग जाएगा | इन सब से बचने के लिए कृषकों को सामुदायिक रूप से प्रयास करना  होगा |

वर्तमान में देश के 87 जिलों में पटसन का उत्पादन हो रहा है, जिसमें से 33 जिले उत्पादन के हिसाब से दक्ष है | इन जिलों में कुल पटसन उत्पादन का 98.41% क्षेत्रफल स्थित है | इनमें से अधिकतर जिले जैसे कि नदीया, मुर्शिदाबाद, उत्तर 24 परगना,  हुगली, मालदा, कूचबिहार  पश्चिम बंगाल में  स्थित है (झा एट अल, 2009-10) | इन ज़िलों के कृषक संगठित हो कर प्रयास कर सकते हैं | इससे अल्प समय में ही सामूहिक गोष्ठी द्वारा बड़ी संख्या में कृषकों से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है |

कृषकों का समूह संगठित हो कर किसी पटसन मिल विशेष के लिए माँग के आधार पर पटसन रेशा का उत्पादन कर सकते हैं | यह उनके लिए संविदा खेती की शुरुआत करने में एक सुदृढ आधार प्रदान कर सकता है | इससे एक संगठन के रूप में भाव निर्धारण करने में शक्ति मिलेगी | छोटे काश्तकारों को विपणन में खर्च होने वाली ऊर्जा में बचत होगी | एक साथ ढुलाई करने में ढुलाई की दक्षता बढ़ेगी एवं आगतों की सस्ते भाव में खरीद की जा सकेगी |

किसी वस्तु के विपणन में मोल-तोल व बात-चीत के अनेक स्तर होते हैं | विपणन में बहुत सारी जानकारियों को गोपनीय रखना आवश्यक होता है | अनेक श्रोतों द्वारा दी जा रही मूल्य की जानकारी का सत्यापन अनेक स्तरों पर करना चाहिए, ताकि अनभिज्ञता के कारण कोई नुकसान न हो | सौदा तय करते समय सबसे पहले सहमति वाले बिन्दु से शुरुआत करनी चाहिए | इसके लिए क्रेता एवं विक्रेता के बीच आपसी विश्वास व आदर की भावना होनी चाहिए |

उपरोक्त कार्यों को कृषक सहकारिता या अनौपचारिक संगठन के द्वारा कर सकते हैं | सबसे पहले संगठन/ सहकारिता की गतिविधि की शुरुआत किराए के स्थान पर शुरू करनी चाहिए | इससे कार्यशील पूँजी अचल संपत्ति में नहीं फँसेगी |

कार्यालय व अन्य सुविधा का उपयोग व्यवसाय के अनुरूप होना चाहिए | गुणवत्ता वाले उत्पाद की खरीद करनी चाहिए | इन बिन्दुओं पर ध्यान देने से सफलता की संभावना अधिक होगी | संगठन/ सहकारिता में जो भी पदाधिकारी  हों उन्हे चाहिए कि वे संगठन के हित में विभिन्न फार्म योजना बनाए जिससे सभी कृषकों का आर्थिक उत्थान समान रूप से हो |

इसलिए संगठन/ सहकारिता बनाते समय पदाधिकारियों का चुनाव बहुत ही सोच समझ कर करना चाहिए जिससे विपणन सबसे ज्यादा फायदेमंद साबित हो सके |

उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान दे कर कृषक बन्धु विपणन प्रबन्धन द्वारा अधिकतम लाभ अर्जित कर सकते हैं | 

सन्दर्भ :

झा एस.के., कुमार एस. एंड षम्ना ए. (200-10) टेक्निकल रिपोर्ट आन फ्रंटलाईन  डेमोंस्ट्रेशन आन जूट अंडर मिनी मिशन-II (एम. एम. II) आफ टी. एम. जे. प्रोग्राम, सेंट्रल रिसर्च इन्स्टीच्युट फार जुट एंड एलाइड फाइबर्स, बैरकपुर, कोलकाता 700120, 19 प.   


Authors:

शैलेश कुमार*,  एस.के. पाण्डेय* एवं षम्ना ए. **

* वरिष्ठ वैज्ञानिक, केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, कोलकाता, 700 120

** वैज्ञानिक, केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, कोलकाता, 700 120

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