Method of preparation of onion nursery

हमारे देश में प्याज की खेती मुख्य रुप से रबी की फसल के रुप में की जाती है। अनेक राज्यों प्याज की खेती खरीफ में भी की जाती है। प्याज एक महत्वपूर्ण व्यापारिक फसल है जिसमें विटामिन सी, फास्फोरस आदि पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।

प्याज का उपयोग प्रतिदिन सब्जी व मसाले के रुप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह सलाद, चटनी एवं अचार आदि के रुप में भी प्रयोग किया जाता है। गर्मी में लू लग जाने तथा गुर्दे की बीमारी में भी प्याज लाभदायक रहता है।

प्‍याज की खेती के लि‍ए जलवायु एवं भूमि

प्याज की फसल के लिए समशीतोष्ण जलवायु की अवश्यकता होती है। अच्छे कन्द बनने के लिए बड़े दिन तथा कुछ अधिक तापमान होना अच्छा रहता है। कन्द बनने से पहले 12.8-230 सेल्सियस तापमान तथा कन्दों के विकास के लिए 15.5-210 सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है।

आमतौर पर सभी किस्म की भूमि में इसकी खेती की जाती है, लेकिन उपजाऊ दोमट मिट्टी, जिसमे जीवांश खाद प्रचुर मात्रा में हो व जल निकास की उत्तम व्यवस्था हो, सर्वोत्तम रहती है।

भूमि अधिक क्षारीय व अधिक अम्लीय नहीं होनी चाहिए अन्यथा कन्दों की वृद्धि अच्छी नहीं हो पाती है। अगर भूमि में गंधक की कमी हो तो 400 किलो जिप्सम प्रति हेक्टर की दर से खेत की अन्तिम तैयारी के समय कम से कम 15 दिन पूर्व मिलायें।

प्‍याज की उन्नत किस्में

  लाल रंग की किस्में पीले रंग की किस्में सफेद रंग की किस्में
रबी में बुवाई हेतु पूसा रेड, पूसा रतनार, पूसा माधवी, अर्का निकेतन, अर्का बिंदू, अर्का कीर्तिमान, अर्का लालिमा, एग्रीफाउंड लाइट रेड, उदयपुर-101, उदयपुर-103 अर्का पिताम्बार, फुले स्वर्णा, अर्ली ग्रेनो, ब्राउन  स्पेनिच पूसा व्हाइट राउंड, पूसा व्हाइट फ्लैट, उदयपुर-102, एग्रीफाउंड व्हाइट, एन-257-9-1
खरीफ में बुवाई हेतु एन-53, एग्रीफाउंड डार्क रेड, पूसा रिधि, अर्का कल्याण, एग्रीफाउंड डार्क रेड, एग्रीफाउंड रोज, बसवंत-780 - भीमा सुभ्रा

प्‍याज के बीज बोने का समय

 रबी फसल के नर्सरी में बीज की बुवाई अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक करना अच्छा रहता है। खरीफ प्याज उत्पादन के लिए बीज की बुवाई का 15 जून से 30 जून तक करनी चाहिए। खरीफ प्याज की फसल को बोने मे किसी कारण देर होती हैa तो किसी भी हालात में जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बो देना चाहिए।

बीज की मात्रा

वर्षा ऋतु 10-12 किग्रा/ हेक्टर
ग्रीष्म ऋतु 8-10 किग्रा/ हेक्टर

प्‍याज नर्सरी में पौध तैयार करना

पौध के लिये क्यारी ऐसे स्थान पर बनानी चाहिए जहाँ पर सिंचाई और पानी के निकास का अच्छा प्रबंध हो। भूमि समतल तथा उपजाऊ होनी चाहिए। आसपास छाया वाले वृक्ष नहीं होने चाहिए। पौध तैयार करने के लिए 3 मीटर लम्बी तथा 1 मीटर चौड़ी क्यारी भूमि से लगभग 15-20 सेमी ऊँची बना लेनी चाहिए। उपरोक्त आकार की 50 क्यारियाँ एक हेक्टर में रोपण के लिए पर्याप्त होती हैं।

बीज बोने से पहले क्यारी की भलीभांति गुड़ाई करनी चाहिए। प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 4-5 ग्राम कैप्टान या थायरम मिलना चाहिए। प्रत्येक क्यारी में 15-20 किग्रा अच्छी तरह सड़ा हुआ गोबर का खाद तथा 10-15 ग्राम दानेदार फ्यूराडान मिला देना चाहिए। क्यारी को समतल करने के बाद 8-10 सेमी की दूरी पर 1.2 सेमी गहरी नालियाँ बनाकर क्यारी तैयार कर लेना चाहिए।

क्यारी तैयार होने के बाद बीज को फफूंदनाशक दवा जैसे– कैप्टान या थायरम (2.0-2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज) से अवश्य उपचारित कर लेना चाहिए ताकि प्रारम्भ में लगने वाली बीमारियों के प्रकोप से पौधे बच सकें। इस प्रकार उपचारित बीज को तैयार क्यारियों में बो देना चाहिए।

बुवाई के बाद बीज को मिट्टी तथा सड़े गले गोबर के खाद के मिश्रण से ढ़ककर उसके ऊपर कांस अथवा पुआल आदि की एक पतली परत बिछा देना चाहिए जिससे तेज धूप तथा वर्षा से बीज की रक्षा हो सके। यह परत भूमि में नमी बनाये रखने में भी सहायक होती है। बीज बोने के तुरंत बाद क्यारी में फव्वारे या हजारे से हल्की सिंचाई करना चाहिए तथा इसके बाद एक दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए।

जब बीज का जमाव (अंकुरण) हो जाये तो कांस अथवा पुआल की परत को हटा देना चाहिए ताकि पौधों को धूप व हवा लगे। नर्सरी में आवश्यकतानुसार हल्की सिंचाई और निराई करते रहने से 6-7 सप्ताह बाद पौध रोपाई के लायक हो जाती है।

अंकुरण के बाद कैप्टान या थायरम या डायथेन एम-45 (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) का घोल पौधों की जड़ों के पास मृदा में डालने (ड्रेंनचिंग) से जड़ गलन तथा अन्य बीमारियों का भय नहीं रहता है। आवश्यक हो तो 10-15 दिन बाद फिर ड्रेंनचिंग करना चाहिए।

Onion seed sowing in nurseryMulching of onion nursery Onion plants in nursery ready for transplantI;

नर्सरी में बुवाई क्यारी को कांस से ढकना रोपण के लिए तैयार पौध

प्‍याज के कीट एवं व्याधि नियंत्रण

पर्ण जीवी (थ्रिप्स):

ये कीट छोटे आकार के होते हैं जो पत्तियों का रस चूसते हैं। यह कीट कई विषाणु जनित बीमारियों का वाहक भी होता है। रस चूसने से पत्तियां कमजोर हो जाती हैं तथा आक्रमण के स्थान पर सफेद चकते पड़ जाते हैं। इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल (0.3-0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए तथा आवश्यकता हो तो 15 दिन बाद दोहराना चाहिए।

आद्र गलन (डेम्पिंग ऑफ):

यह विभिन्न प्रकार की कवक प्रजातियों द्वारा होने वाला रोग है। रोग दो तरह से पौध को नुकसान पहुंचाता है, पौध अंकुरण से पूर्व तथा पश्चात। अंकुरण के पूर्व पौधे के बीज का अंकुरण ही नही हो पाता है, बीज सड़कर नष्ट हो जाते हैं जबकि अंकुरण के पश्चात रोग के आक्रमण के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

इस स्थिति मे पौधे के तने जमीन की सतह पर जिसे कॉलर रीजन कहते हैं पर विगलन हो जाता है व तना पौधे का भार सहने योग्य नही होता है जिससे नव अंकुरित पौध गिरकर मर जाती है।  

रोग की रोकथाम हेतु कर्षण क्रियाओं में बदलाव लाना चाहिए जैसे पौध को दूरी पर लगना, नर्सरी हेतु हल्की मिट्टी का चुनाव व बार बार सिंचाई करना चाहिए। मृदा का उपचार करने के लिए कवकनाशी कैप्टान या थायरम का 0.2 से 0.5 प्रतिशत सांद्रता का घोल मृदा में सींचना चाहिए जिसे ड्रेंनचिंग कहते हैं।

बीजों की बुवाई से पूर्व कैप्टान या थायरम नामक दवा से 2.0-2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज के हिसाब से उपचारित करना भी रोग से बचाव करता है।

जीवाणु धब्बा:

वर्षा ऋतु के मौसम में पौध पर जीवाणु धब्बा बीमारी बहुत लगती है। पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं। इस अवस्था मे स्ट्रेप्टोसाइक्लीन दवा का 250 पी.पी.एम. घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।  


Authors:

1देश राज चौधरी एवं 2हरि दयाल चौधरी

1सब्जी विज्ञान एवं पुष्पोत्पादन विभाग, शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान एवं तकनीकी विश्वविद्यालय, जम्मू

2उधान विज्ञान विभाग, श्री कर्ण नरेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, जोबनेर, राजस्थान  

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