पश्‍चि‍मी राजस्थान में टि‍ड्डी प्रकोप एवं उसका नि‍यंत्रण 

राजस्थान के पश्चिमी भाग की जलवायु, मृदा एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ अन्य भागो से भिन्न है। इस क्षेत्र के जिले जैसे बाडमेर, जोधपुर, जैसलमेर एवं बीकानेर की सीमा अंतर्राष्ट्रीय सीमा से मिलती है। इस क्षेत्र में मृदा रेतीली, अल्प वर्षा आधारित, उष्ण, उच्च तापमान एवं कम वनस्पति युक्त है। इस प्रकार की जलवायु एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ पड़ोसी देश पाकिस्तान में मिलती जो कि टिड्डी जैसे अति हानिकारक कीट के लिए अति उपयुक्त है।

वर्ष 2019 (21 अप्रैल से) एवं वर्ष 2020 (11 मई से) में राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, श्रीगंगानगर, जालोर एवं हनुमानगढ़ में टिड्डी दलों का आक्रमण हुआ जो कि नागौर पाली, सिरोही एवं चूरू जिलों तक पहुंच गया था। वर्ष 2020 का आक्रमण यहां तक की गुजरात उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश छत्तीशगढ एवं महाराष्ट्र के कुछ जिलों तक जा पहुंचा।

बड़े टिड्डे जो दल या झुण्ड के रूप में रहते हैं उन्हें टिड्डी कहते हैं। टिड्डी फॅमिली एक्रीडीडी का सदस्य है। भारत में टिड्डी की तीन स्पीशीज (रेगिस्तानी टिड्डी सिस्टोसरका ग्रेगरिया, बॉम्बे टीडी पटांगा सकसिंटा एवं प्रवासी टिड्डी लोकस्टा माईग्रेटोरिया) पायी जाती हैं। इसमें से रेगिस्तानी टिड्डी बहुत आम हैं एवं यह एक अंतर्राष्ट्रीय कीट मानी जाती है। ये लगभग 150 किमी तक प्रतिदिन उड़ सकती है।

टिड्डी दो अवस्थाओं में पायी जाती है एकांत अवस्था एवं झुण्ड मे रहने वाली। कुछ में दोनों अवस्थाओं की विशेषताऐं होती हैं जिन्हें अक्सर ट्रांजियंट अवस्था में रखा जाता है। दोनों अवस्थाओं के लक्षण एक दूसरे से अलग भिन्न भिन्न होते है विशेषकर उनकी शिशु अवस्था (निम्फ) के रंग मे।

झुंडीय अवस्था के शिशु का रंग पीला या गुलाबी, विशिष्ठ काले चिन्हो के साथ जबकि एकांत अवस्था के शिशु कीट का रंग आसपास के वनस्पति के ऊपर निर्भर करता हैं। झुंडीय अवस्था के वयस्क गुलाबी, फिर स्लेटी एवं अंत में जब पूर्ण परिपक्व हो तब पीले रंग के होते हैं। एकांत अवस्था के वयस्क सम्पूर्ण जीवन चक्र के दौरान हरे स्लेटी रंग के रहते है।

जीवन चक्र-

टिड्डी अपने जीवन में तीन मौसम में प्रजनन करती है। 1 सर्दकालीन मौसम अक्टूबर से फरवरी तक 2 बसंतकालीन मौसम फरवरी से जून तक 3 ग्रीष्मकालीन मौसम जुलाई से अक्टूबर तक । भारतवर्ष में केवल ग्रीष्मकालीन अवस्था ही पाई जाती है जबकि पाकिस्तान में ग्रीष्मकालीन के साथ साथ बसंतकालीन प्रजनन भी होता है ।

टिड्डी के जीवन चक्र में तीन अवस्थाये जैसे अंडा, शिशु एवं वयस्क होती है। इसकी जीवन अवधि औसत 2-6 महीने की होती है। मादा टिड्डी द्वारा नम रेतीली भूमि में लगभग 10 सेमी की गहराई पर अंडे दिए जाते है। एक मादा टिड्डी लगभग 500 अंडे 5 एग पॉड्स मे देती हैं। एग पॉड्स 5-7 दिन के अंतराल पर दिए जाते हैं।

टिड्डी के अंडे चावल के दाने जैसे दिखाई देते है। अंडे देने पर मादा टिड्डी अंडो पर झागदार पदार्थ का स्त्राव करती है जो सूखने पर कठोर हो जाता है और इस प्रकार एग पॉड्स को जल अवरोधी बना देती हैं।

फरवरी एवं मार्च में दिए जाने वाले अंडे 3-4 सप्ताह में शिशु कीट निकलते हैं एवं मई-सितम्बर में दिए जाने वाले अंडे से 12-15 दिन में शिशु कीट निकलते हैं। अति शुष्क परिस्थियों में अंडे लम्बे समय तक नहीं फूटते जब तक वहां बारिश नहीं हो जाती। वर्ष में दो बार जन्म अवस्था पूरी होती हैं।


शि‍शु टिड्डी वयस्क टिड्डी

चि‍त्र 1 शि‍शु टिड्डी एवं वयस्क टिड्डी

आर्थिक क्षति-

ये वनस्पति एवं फसलों के लिए बहुत बड़ा खतरा है क्योंकि वयस्क टिड्डी प्रतिदिन उनके वजन के बराबर फसलों को खा सकती हैं जो कि 2 ग्राम ताजा वनस्पति प्रतिदिन के बराबर हैं। टिड्डी का एक बहुत छोटा दल भी एक दिन में इतना खा सकता है जितने 35000 लोग, इस प्रकार फसलों एवं खाध्य सुरक्षा के लिए विनाशकारी खतरा है।

टिड्डी दल जहाँ पर भी बैठता है कुछ ही समय मे सम्पूर्ण फसल को समाप्त कर सकता है एवं पूर्ण विकसित टिड्डियों के पौधों पर एक साथ बैठने से उनके तने टूटने के कारण गिर जाते हैं।


टिड्डी द्वारा क्षति ‍ग्रस्त फसल मतीराटिड्डी द्वारा क्षति ‍ग्रस्त मतीरा

 

टिड्डी द्वारा क्षति ‍ग्रस्त चना टिड्डी द्वारा क्षति ‍ग्रस्त सरसोंचि‍त्र 2 टिड्डी द्वारा क्षति ‍ग्रस्त फसल मतीरा ऊपर एवं चना व सरसों नीचे

नियंत्रण-

टिड्डी की सभी अवस्थाओं में नियंत्रण किया जा सकता हैं किन्तु सबसे व्यवहार्य एवं प्रभावी नियंत्रण शिशु टिड्डी के विरुद्ध होता है क्योंकि शिशु अवस्था सबसे अधिक संवेदनशील होती है एवं नियंत्रण विधिया द्वीतीय केंचुली बदलाव से पूर्व सबसे प्रभावी होती है। टिड्डियों को रासायनिक या यांत्रिक विधियों का प्रयोग करके नष्ठ किया जा सकता है।

1) स्वीपिंग-

स्वीपिंग या झाड़कर भी शिशु टिड्डी दलों का प्रवेश फसलों पर होने से रोका जा सकता है (चित्र 3(अ) झाडना)।

2) पीटना-

वयस्क टिड्डियों को कांटेदार डंडो या झाडू से मरने तक पीटकर, जमीन में गहरा गाड़ दें। ये तरीका जब मादा टिड्डिया अंडे दे रही हो तब ज्यादा उपयुक्त होता हैं। क्योंकि इस समय टिड्डी चलने फिरने की अवस्था मे नहीं होती है।

3) जलाकर मारना -

जब टिड्डियों पेड़ों एवं झाड़ियों पर बैठी हो तब वहां पर पुआल या भूसा डालकर जलाकर मार दें। जलाने का कार्य रात्रि के समय या सुबह जल्दी करें जब व्यस्क टिड्डियाँ ठंढ के कारण स्लगीश अवस्था में होती है। ठंढे मौसम मे टिड्डियां पेड़ों के ऊपर बैठती है जिन्हें पेड़ों को हिलाकर गिराकर झाड़ू से एकत्र कर जलाकर या गाड़कर मार दें (चित्र 3(ब) जलाना)।



झाड़कर शिशु टिड्डी दलों का प्रवेश रोका जा सकता हैटिड्डियों पेड़ों एवं झाड़ियों पर बैठी टिड्डियों को पुआल डालकर जलाना
चि‍त्र 3 (अ) झाडना (ब) जलाना

4) ध्वनि करना-

दिन के समय टिड्डियों को फसलों में बैठने से रोकने के लिए, सफेद कपडे के टुकड़े लहराना चाहिए या खली ड्रम को पीटकर या बजाकर आवाज करने से टिड्डियों के खेत में बैठने की सम्भावना कम हो जाती हैं।

5) खाई खोदना -

यह नियंत्रण का मुख्य यांत्रिक तरीका है। इसमें शिशु टिड्डी दलों के सामने खाई खोदकर उनको उसमें झाड़ू या पेड़ की टहनियों से खाई में गिराकर जीवित ही दफना दिया जाता हैै। चूँकि अंडे एक सुनिश्चित क्षेत्र में दिए जाते हैं। शिशु टिड्डी के निकलने पर दोनों तरफ 45 सेमी ऊंचे धातु अथवा कैनवास के अवरोधक लगाकर उनको खाई में गिरावे।

खाई पर्याप्त गहराई की होनी चाहिए जिससे अधिक से अधिक शिशु टिड्डियों को उसमें गिराकर समा सके। इससे अधिकांश टिड्डियाँ एक दूसरे के वजन के कारण मर जाएगी। फिर खाई को मिट्टी से भरकर बंद कर दें। शुरूआती अवस्था में खाई की चैड़ाई 30-45 सेमी एवं गहराई 60 सेमी रख सकते हैं किन्तु जब टिड्डियाँ शिशु अवस्था में थोड़ी बड़ी हो जाए तो चैड़ाई बढ़ाकर 75 सेमी रख सकते हैं।

6) रासायनिक नियंत्रण-

इन दिनों हमारे देश में टिड्डी नियंत्रण में सबसे अधिक काम में लिए जाने वाले कीटनाशी फेनीट्रोथियोंन एवं मेलाथियान है। ये कीटनाशी प्रमुख रूप से 2-3 दिन की अल्प अपशिष्ट क्रिया के साथ स्पर्श कीटनाशी है।

i) फसल मे नीम गुठली के पॉउडर का 1 प्रतिषत सस्पेंशन का छिड़काव बहुत आशाजनक पाया गया है।

ii) किसानों को अपने खेतों मे टिड्डी का प्रकोप होने पर भारत सरकार द्वारा टिड्डी नियंत्रण कार्य के लिए सिफारिश किये गये कीटनाशी जिसमें क्लोरपायरीफोस 20 ई.सी. की 2 एमएल प्रति लीटर (1200 एमएल मात्रा प्रति हैक्टर), क्लोरपायरीफोस 50 ई.सी. की 0.8 एमएल प्रति लीटर (480 एमएल मात्रा प्रति हैक्टर), डेल्टामेथ्रिन 2.80 प्रतिशत ई.सी 0.7 एमएल प्रति लीटर (500 एमएल प्रति हैक्टर), मेलाथियॉन 50 प्रतिशत ई.सी. 3 एमएल प्रति लीटर (1850 एम एल प्रति हैक्टर), मेलाथियॉन 25 प्रतिशत डब्लू.पी. 6 ग्राम प्रति लीटर (3700 ग्राम प्रति हैक्टर), एव फिप्रोनिल 5 प्रतिशत एस.सी. 0.25 एमएल प्रति लीटर (125 एम एल का छिडकाव 600 लीटर) पानी मे मिलाकर प्रति हैक्टर छिड़काव करने पर प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है।

फसल पर रासायि‍नक दवा का छि‍ड्कावटिड्डी नि‍यंत्रक वि‍भाग द्वारा मैला‍थि‍यान 96 प्रति‍शत ‍छि‍ड्काव
चि‍त्र 4: फसल पर रासायि‍नक दवा का छि‍ड्काव एवं टिड्डी नि‍यंत्रक वि‍भाग द्वारा मैला‍थि‍यान 96 प्रति‍शत ‍छि‍ड्काव

मैलाथियान 96 प्रतिशत का अल्ट्रा लो वॉल्यूम छिड़काव किया जाता है जिसकी एक हेक्टेयर में 1 लीटर मात्रा पर्याप्त होती है। किन्तु यह शुद्ध रूप में होने से पौधों एवं अन्य वनस्पति के लिए हानिकारक होने से इसका छिड़काव केवल भारत सरकार के टिड्डी नियंत्रण विभाग द्वारा ही सावधानी पूर्वक किया जाता हैं (चित्र 4)।

7) अन्य विधिया-

i) कई पक्षी जैसे मैना एवं तिलियार टिड्डियों को अपने भोजन के रूप में खाते है। टिड्डियों के आक्रमण के समय संभव हो तो इनकी उपस्थिति को बढ़ाना चाहिए ।
ii) कीटरोगजनक कवक से विकसित जीवनाशी जैसे मेटाराइजियम एक्रिडम का प्रयोग रेगिस्तानी टिड्डी के नियंत्रण में विशेषकर शिशु टिड्डी के लिए अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया मे किया जाता है। हालांकि अभी तक इसका प्रयोग भारतवर्ष मे नहीं किया गया है।
iii) विषयुक्त चुग्गा- विषयुक्त चुग्गा जैसे विषयुक्त चावल की भूषि या भूसा को अलसुबह या सांय के समय बिखेरना प्रभावी पाया गया है। हालांकि दिन के समय चुग्गा तीव्रता से सूखने के कारण शिशु टिड्डी के नहीं खाने से इसके निष्प्रभावी होने की सम्भावना होती हैं।

निष्कर्ष- टिड्डी एक सर्वभक्षी कीट होने एवं इसकी प्रजनन क्षमता अधिक होने के कारण इसका पूर्ण नियंत्रण किसान के स्तर पर कठिन हैं किन्तु इसकी आर्थिक नुकसान पहुंचाने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए उपरलिखित विधियां टिड्डी दलों के आक्रमण को कम करने में सहायक होती है

टिड्डी दलों का सम्पूर्ण नियंत्रण भारत सरकार के टिड्डी नियंत्रण विभाग द्वारा उच्च सक्रीय तत्व युक्त कीटनाशकों के छिड़काव द्वारा ही किया जा सकता है। अतः इस आलेख का मुख्य उद्देश्य किसानो एवं प्रसारकर्ताओं को टिड्डी नियंत्रण उपायों से अवगत कराना है ताकि टिड्डी का व्यापक स्तर पर आक्रमण होने पर किसान उपरोक्त उपायों को अपनाकर फसलों को बचा सके।


Authors:

एस सी मीणा, मावजी पाटीदार, जूलियस उचोई, अंकिता त्रिवेदी, दिलीप कुमार एवं अर्चना सान्याल

भा.कृ.अनु.प.- केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान क्षेत्रीय अनुसंधान स्थात्र जैसलमेर- 345 001

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