Harmful effects of current agricultural systems

हरित क्रांति ने भारतवर्ष में खाद्यान्न के उत्पादन एवं आपूर्ति तथा खाद्यान्न सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परिणामस्वरूप पारम्परिक कृषि पद्धतियां का स्थान कृषि की आधुनिक तकनीकों जैसे कि रासायनिक खादों, कृषि रसायनों (कीटनाशी) तथा फार्म मशीनरी ने ले लिया है तथा इस प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन सिर्फ भारतीय परिदृश्य में ही नहीं अपितु समस्त विश्व की कृषि में देखा जा सकता है।

बहुआयामी विकास एवं आधुनिकीकरण के पश्चात भी वर्तमान कृषि विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रही है। वाह्य कृषि निवेशों के अत्यधिक प्रयोग से मृदा, जल एव अनुवांशकीय स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है तथा मृदा अपरदन, मृदा में पोषक तत्वों की कमी , घटता हुआ भूजलस्तर तथा जैव विविधता का क्षय इत्यादि प्रमुख रूप से देखे जा रहे हैं।

वैश्विक स्तर पर लगभग 100 लाख हैक्टेयर उच्च गुणवत्तायुक्त भूमि की हानि प्रतिवर्ष हो जाती है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का अभाव होता है तथा गरीब एवं छोटे किसानों के जीवनयापन के साधनों में कमी होती है। संयुक्त राष्ट्र की फूड एण्ड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन के एक अध्ययन के अनुसार लगभग 1.5 अरब मनुष्य उपरोक्त प्रकार से क्षय होने वाली मृदा पर आश्रित हैं।

मृदा की संरचना एवं पोषक तत्वों में कमी के लिए मुख्य रूप से मृदा कार्बन में कमी को एक महत्वपूर्ण कारक माना जा सकता है। अत्यधिक मशीनीकरण से लगभग 78 अरब मीट्रिकटन कार्बन प्रतिवर्ष कार्बन डाईआॅक्साइड के रूप में क्षय होता है। मृदा की गुणवत्ता में क्षय के विभिन्न दुष्प्रभाव निम्नवत है-

जैव विविधता में कमी

मृदा अपने आप में एक परिस्थितिकी तंत्र है तथा प्राकृतिक रूप से मृदा में उपलब्ध कार्बनिक पदार्थ तथा सूक्ष्म वनस्पति एवं जीव मृदा जैव विविधता के प्रमुख घटक है। गहन (इन्टेन्सिव) कृषि मुख्य रूप से जीवाश्म स्रोतों पर आधारित कृषि निवेशों पर निर्भर करती है। इस प्रकार से प्रयोग होने वाले रासायनिक पोषक तत्व नाइट्रेट, मीथेन तथा कार्बन डाई आॅक्साइड के रूप में वायुमण्डल में पहुॅचते हैं।

कृषि पारिस्थितिकी को प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र से कम जटिल माना जाता है। अतः जैव विविधता की कमी कृषि परिस्थितिकी पर सीधा प्रभाव डालती है तथा रोग एवं कीट नियंत्रण के प्राकृतिक तंत्र जो कि वर्षो के विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप स्थापित होते हैं, इसे नष्ट कर देती है।

इसके पीछे प्राकृतिक शत्रुओं तथा कृषि मित्र कीट, फफूंदी तथा जीवाणु का नष्ट होना प्रमुख कारण है। जैव विविधता भी कृषि परिस्थितिकी के टिकाऊपन पर सीधा प्रभाव डालती है।

भूजल निम्नीकरणः

1960 के बाद में कृषि में नाशीजीवों (कीट, रोग एवं खरपतवार) के नियंत्रण का प्रमुख माध्यम रसायनों का प्रयोग हो रहा है। इससे कृषि उत्पादन में बढ़ौत्तरी में सहायता मिली है। इसके अतिरिक्त वायुमण्डल तथा फसल तंत्र में इन कृषि रसायनों के अवशेषों से भूजल तथा मृदा प्रदूषित हो रहे हैं। भूजल प्रदूषित होने के साथ-साथ भूजलस्तर में गिरावट भी चिंता का विषय है। क्योंकि आधुनिक कृषि प्रणाली में भूजलीय संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया जाता है।

यंत्रीकरण से भूमि की सतह पर उपस्थित मल्च (फसल अवशेषों तथा कार्बनिक पदार्थो की परत) का क्षय होता है। एक अध्ययन के अनुसार बलुई मृदा में 1-2 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ की कमी होने से उस मृदा की जलधारण क्षमता में 60 प्रतिशत तक की कमी पायी गइ्र।

मृदा की जलधारण क्षमता में कार्बनिक पदार्थ के अभाव में होेने वाली कमी फसलाें पर विपरीत प्रभाव डालती है, विशेषतः वर्षाधारित क्षेत्रों तथा सूखाग्रस्त क्षेत्रों में तथा लगातार इस प्रकार की क्रियाओं के फलस्वरूप भूजल स्तर में निरंतर गिरावट हो सकती है।

उपरोक्त कारणों से कृषि प्रणालियों के ह्यस के साथ-साथ विश्व में निरंतर बढ़ रही जनसंख्या तथा उन्हें भोजन उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। वर्तमान कृषि में उत्पादन प्रणाली अपने परिस्थितिकी, आर्थिक तथा सामाजिक चरम पर पहुॅच चुके हैं तथा इनके विकास की सम्भावना कम है।

वर्ष 2030 तक ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों के दोहन के कारण वातावरणीय परिवर्तन, उर्वरा भूमि का क्षय, प्रदूषणतथा जैव विविधता की हानि, जनसंख्या में 1.5 अरब जनसंख्या की वृद्धि तथा 1.5 अरब कुपोषित जनसंख्या, 2.5 अरब जनसंख्या को जलीय संसाधनों का अभाव तथा खाद्यान्न आपूर्ति हेतु 50 प्रतिशत से अधिक कृषि उत्पाद की मांग इत्यादि प्रमुख चुनौतियां होने की सम्भावना है।

अतः कहा जा सकता है कि आधुनिक कृषि में अत्यधिक जुताई सम्बंधी क्रियाओं ने मृदा कार्बनिक पदार्थ की कमी, मृदा शारीरिकी का निम्नीकरण, मृदा एवं जल अपरदन, मृदा की जलधारण क्षमता में कमी, मृदा की सतह पर परतीकरण तथा मृदा संघनन को बढ़ावा दिया है तथा इन समस्याआंे के समाधान हेतु कृषि को अधिक क्रियाशील एवं उत्पादन बनाने हेतु टिकाऊ खेती की ओर रूझान बढ़ाना आवश्यक है।

टिकाऊ खेती-

टिकाऊ खेती पादप तथा पशुधन उत्पादन की विभिन्न विधियों की समेकित प्रणाली है तथा इसके द्वारा मानव जाति के लिए खाद्यान्न उच्च गुणवत्तायुक्त वातावरण, नवीनीकरण, योग्य संशाधनों, आर्थिक विकासशीलता तथा उच्च गुणवत्तायुक्त जीवन को पाया जा सकता है। साधारण कृषि प्रणाली तथा टिकाऊ कृषि प्रणाली के मध्य कुछ अंतर निम्न प्रकार हैं-

साधारण खेती पद्धति  टिकाऊ खेती पद्धति
प्रकृति पर हावी होने वाली, विज्ञान एवं तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्राकृतिक प्रक्रियाओं एवं व्यवस्था में कम से कम दखल दिया जाता है।
अत्यधिक मशीनी जुताई तथा मृदा अपरदन  जुताई न के बराबर
वायु के प्रवाह से अत्यधिक मृदा अपरदन कम मृदा अपरदन
फसल अवशेष को जलाना अथवा उसकी सफाई  सतह पर फसल के अवशेषों को रहने दिया जाता है। (स्थायी कवर)
मृदा में जलधारण क्षमता कम  मृदा की जल धारण क्षमता अधिक
रासायनिक खादों का अधिक प्रयोग अथवा विभिन्न खनिज आधारित व्यवसायिक उत्पादों का प्रयोग  कार्बेनिक स्रोतों से बनी खाद, गोबर की सड़ी खाद, कम्पोस्ट का प्रयोग
खरपतवारनाशियों द्वारा खरपतवारों का नाश  टिकाऊ खेती की प्रारम्भिक अवस्था में खरपतवार परेशानी करते है। बाद में धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।
खेतों में फार्म मशीनरी के आवागमन से मृदा का संघनन  खेतों में कम अथवा हल्की मशीनरी का प्रयोग तथा कम मृदा संघनन
एक ही फसल को बार-बार उगाना तथा फसल चक्र का अभाव  विविधीकरण फसल चक्र का प्रयोग
किसी भी प्रकार का वातावरणीय तनाव सहने की कम क्षमता परिणामस्वरूप कम उत्पादन  वातावरणीय तनाव को अधिक सहने की क्षमता तथा उत्पादन पर कम नकारात्मक प्रभाव
समय के साथ-साथ उत्पादकता में कमी अथवा ठहराव  समय के साथ उत्पादकता में वृद्धि

टिकाऊ खेती के सिद्धान्त-

टिकाऊ खेती प्रधानतः तीन सिद्धांतों पर आधारित है। यह तीनों सिद्धांत एक दूसरे से जुड़े है अथवा एक-दूसरे पर आधारिक हैं। टिकाऊ खेती की रूपरेखा तैयार करते समय इन्हें ध्यान में रखना अत्यधिक आवश्यक है।

मृदा में कम यंत्रीकरण व्यवधान-

कृषि की अधिकांश क्रियायंे मृदा के प्रकार एवं संरचना पर निर्भर करती हैं। मृदा में प्राकृतिक रूप से चलने वाली विभिन्न रसायनिक तथा जैविक क्रियायें, मृदा के प्रकार के अनुसार मृदा के कणों का आकार तथा मृदा में वायु के आवागमन को प्रभावित/निर्धारित करती है।

इसे ‘‘जैविक जुताई‘‘ की संज्ञा दी जाती है। मशीनी जुताई जैसी क्रियाओं में मृदा के भीतर विकसित रसायनिक व जैविक क्रियाओं का तंत्र नष्ट हो जाता है। यदि मृदा में कम मशीनी की जाए तो उपरोक्त वर्णित क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया जा सकता है।

स्थायी मृदा आवरण-

प्राकृतिक अवस्थाओं में मृदा पर मृत पादप अंशों का आवरण पाया जाता है जो कि मृदा पर तापमान की चरम अवस्थाओं में पड़ने वाले प्रभाव को कम करता है। जल के अंतः प्रवेश ताा मृदा की जल धारण क्षमता को बढ़ाता है। मृदा के भीतर वायु के आवागमन को बढ़ाता है।

इन सबके अलावा महत्वपूर्ण है कि मृदा पर जैविक आवरण मृदा की संरचना को बनाये रखता है तथा बारिश एवं तीव्र वायु के प्रभाव में होने वाले मृदा अपरदन को रोकता है। मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवों तथा पौधों की जड़ों को भोजन की अनवरत पूर्ति करता है एवं परिणामस्वरूप भूमि की सूक्ष्म परिस्थितिकी (माइक्रोक्लाइमेट) स्थिर रहती है।

विविधीकृत फसल चक्र-

फसल चक्र से मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवियों को विभिन्न प्रकार का भोजन प्राप्त होता है। साथ ही साथ मृदा की विभिन्न परतों में उपस्थित पोषक तत्वों का पुनर्जीवीकरण भी हो जाता है जो मृदा की गहरी परतों में चले जाते (लीच) है। इस प्रकार से फसल चक्र मृदा में विविधीकृत वनस्पति एवं जीवाें के विकास में सहायक होता है।

इस प्रकार से फसल चक्र में प्रयुक्त फसलें ‘‘जैविक पम्प‘‘ की तरह काम करती है। फसल चक्र में प्रयुक्त फसलों की जड़ों से विभिन्न प्रकार के कार्बेनिक पदार्थ स्रावित होते हैं जो कि जड़ों के पास विभिन्न प्रकार के लाभकारी सूत्रकृमि, फफूंदी तथा जीवाणु को आकर्षित करते हैं बदले में यह सूक्ष्म जीव पौधों द्वारा स्रावित कार्बेनिक पदार्थो को मृदा द्वारा पौधों के लिए उपयोगी पोषक तत्वों में बदल देते हैं।

फसल चक्र अपनाने से रोग एवं कीटों का प्रकोप कम होता है साथ ही साथ मित्र कीटो एवं जीवों की संख्या भी विविधीकृत फसलों में अधिक पायी जाती है।

फसल अवशेष प्रबंधन एवं टिकाऊ खेती

पौधे दो प्रमुख रूपों मंे अपना भोजना ग्रहण करते हैं। ये हैं- कार्बेनिक पदार्थ तथा खनिज लवण। कार्बेनिक पदार्थ उन पादप तथा पशु से मिलता है जो मृदा में मिलाये जाने के पश्चात डिकम्पोज (विघटित) होते है

मृदा की क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए फसल अवशेष अत्यधिक आवश्यक है परन्तु अधिकांशतः अगली फसल की बुवाई तथा खेत की बुवाई तथा खेती की तैयारी के लिए कम समय बचा होने के कारण पूर्व फसल के अवशेषों को जला देते हैं अथवा खेत से उठवा देते हैं। इस प्रकार जितने कार्बेनिक पदार्थ को उगाने में दोहन किया गया उतना कार्बेनिक पदार्थ मृदा में वापस नहीं पहुॅचता है। जिससे मृदा के कार्बेनिक पदार्थ में लगातार कमी होती जा रही है।

यदि धान-गेंहूॅ फसल प्रणाली की बात करेें तो धान के भूसे की एक बड़ी तादाद का 15-20 दिन के अंदर प्रबंध करना पड़ता है तथा गेेहूॅ की अगली फसल की बुवाई के लिए किसान भाई धान की पुआल को जला देते हैं। धान की एक टन पुआल में लगभग 5.5 किग्रा0 नत्रजन, 2.3 किग्रा0 पोटाश, 2.5 किग्रा0 पोटाश, 1.2 किग्रा0 सल्फर, 50-70 प्रतिशत ऐसे सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं जो धान की फसल द्वारा अवशोषित किये जाते हैं तथा लगभग 400 किग्रा0 कार्बन होता है।

फसल अवशेष जलाने की क्रिया द्वारा सूक्ष्म पोषक तत्वों का अत्यधिक क्षय होता है। एक अध्ययन के अनुसार पंजाब राज्य में 1.5 से 1.6 लाख टन नाइट्रोजन तथा सल्फर जो कि धान के फसल अवशेष में उपस्थित होती है, वह जलाकर नष्ट कर दी जाती है। जिसकी अनुमानित कीमत लगभग 160-170 करोड़ रूपये होती है।

अवशेषों को जलाने से कार्बन मोनोआॅक्साइड, कार्बन डाईआॅक्साइड, मीथेन तथा नाइट्रस आॅक्साइड आदि हानिकारक गैसे उत्पन्न होती है। ये गैसे न सिर्फ वायुमण्डल को प्रदूषित करती है बल्कि मानव तथा पशु स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव डालती हैं।

यदि विभिन्न विधियांे जैसे कि वेस्ट डिकम्पोजर तथा फसल अवशेष प्रबंधन में प्रयुक्त मशीनों जैसे कि जीरो टिल, हैप्पी सीडर, मल्चर, चैपर, डीप्लावर एवं रोटावेटर के प्रयोग से फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन कर मृदा स्वास्थ्य एवं कार्बनिक पदार्थ का प्रबंधन किया जा सकता है।

भूमि की जलधारण क्षमता को बढ़ाया जा सकता है तथा वायुमण्डलीय प्रदूषण के साथ-साथ कृषि उत्पादन की लागत को भी कम किया जा सकता हैै


Authors:

1रेशु सिंह, 2मीनाक्षी मलिक एवं 2मुकेश सहगल
1कृषि विज्ञान केन्द्र, बुलन्दशहर
2आई.सी.ए.आर.– राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन अनुसंधान केंद्र, नई दिल्ली
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